पंचाशत्तम (50) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद
उग्रश्रवा जी कहते हैं- मन्त्रियों की बात सुनकर राजा जनमेजय दुःख से आतुर हो संतप्त हो उठे और कुपित होकर हाथ से हाथ मलने लगे। वे बारम्बार लम्बी और गरम साँस छोड़ने लगे। कमल के समान नेत्रों वाले राजा जनमेजय उस समय नेत्रों से आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। राजा ने दो घड़ी तक ध्यान करके मन-ही-मन कुछ निश्चय किया, फिर दुःख शोक और अमर्ष में डूबे हुए नरेश ने थमने वाले आँसुओं की अविच्छिन्न धारा बहाते हुए विधिपूर्वक जल का स्पर्श करके सम्पूर्ण मन्त्रियों से इस प्रकार बोले। जनमेजय ने कहा- मन्त्रियों! मेरे पिता के स्वर्गलोकगमन के विषय में आप लोगों का यह वचन सुनकर मैंने अपनी बुद्धि द्वारा जो कर्तव्य निश्चित किया है, उसे आप सुन लें। मेरा विचार है, उस दुरात्मा तक्षक से तुरंत बदला लेना चाहिये, जिसने श्रृंगी ऋषि को निमित्त मात्र बनाकर स्वयं ही मेरे पिता महाराज को अपनी विष अग्नि से दग्ध करके मारा है। उसकी सबसे बड़ी दुष्टता यह है कि उसने काश्यप को लौटा दिया। यदि वे ब्राह्मण देवता आ जाते तो मेरे पिता निश्चय ही जीवित हो सकते थे। यदि मन्त्रियों के विनय और काश्यप के कृपा प्रसाद से महाराज जीवित हो जाते तो इसमें उस दुष्ट की क्या हानि हो जाती? जो कहीं भी परास्त न होते थे, ऐसे मेरे पिता राजा परीक्षित को जीवित करने की इच्छा से द्विजश्रेष्ठ काश्यप आ पहुँचे थे, किंतु तक्षक ने मोहवश उन्हें रोक दिया। दुरात्मा तक्षक का यह सबसे बड़ा अपराध है कि उसने ब्राह्मण देव को इसलिये धन दिया कि वे महाराज को जिला न दें। इसलिये मैं महर्षि उत्तंक का, अपना तथा आप सब लोगों का अत्यन्त प्रिय करने के लिये पिता के वैर का अवश्य बदला लूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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