महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 81-97

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 81-97 का हिन्दी अनुवाद


गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्‍छा ही बर्ताव करना उचित है; क्‍योंकि गुरुनिंदा मनुष्‍यों की आयु को दग्‍ध कर देती है, इसमें संशय नहीं है। अपना हित चाहने वाला मनुष्‍य घर से दूर जाकर पेशाब करे, दूर ही पैर धोवे और दूर पर ही जूठे फेंके। प्रभो! विद्वान पुरुष को लाल फूलों की नहीं, श्‍वेत पुष्‍पों की माला धारण करनी चाहिये; परंतु कमल और कुवलय को छोड़कर ही यह नियम लागू होता है। अर्थात कमल और कुवलय लाल हों तो भी उन्‍हें धारण करने में कोई हर्ज नहीं है। लाल रंग के फूल तथा वन्‍यपुष्‍य को मस्‍तक पर धारण करना चाहिये। सोने की माला पहनने से कभी अशुद्ध नहीं होती।

प्रजानाथ! स्‍नान के पश्‍चात मनुष्‍य को अपने ललाट पर गीला चन्‍दन लगाना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष को कपड़ों में कभी उलट-फेर नहीं करना चाहिये अर्थात उत्‍तरीय वस्‍त्र को अधोवस्‍त्र के स्‍थान में और अधोवस्‍त्र को उत्‍तरीय के स्‍थान में न पहने। नरश्रेष्‍ठ! दूसरे के पहने हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिये। जिसकी कोर फट गयी हो, उसको भी नहीं धारण करना चाहिये। सोने के लिये दूसरा वस्‍त्र होना चाहिये। सड़कों पर घूमने के लिये दूसरा और देवताओं की पूजा के लिये दूसरा ही वस्‍त्र रखना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष राई, चन्‍दन, ‍विल्‍व, तगर तथा केसर द्वारा पृथक-पृथक अपने शरीर में उबटन लगावे।

मनुष्‍य सभी पर्वों के समय स्‍नान करके पवित्र हो वस्‍त्र एवं आभूषणों से विभूषित होकर उपवास करे तथा पर्वकाल में सदा ही ब्रह्मचर्य का पालन करे। जनेश्‍वर! किसी के साथ एक पात्र में भोजन न करे। जिसे रजस्वला स्‍त्री ने अपने स्‍पर्श से दूषित कर दिया हो, ऐसे अन्‍न का भोजन न करे एवं जिसमें से सार निकाल लिया गया हो, ऐसे पदार्थ का कदापि भक्षण न करे तथा जो तरसती हुई दृष्टि से अन्‍न की ओर देख रहा हो, उसे दिये ‍बिना भोजन न करे। बु‍द्विमान पुरुष को चाहिये ‍कि वह किसी अपवित्र मनुष्‍य के निकट अथवा सत्पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे। धर्मशास्‍त्रों में जिनका निषेध किया गया हो, ऐसे भोजन को पीठ पीछे छिपाकर भी न खाये। अपना कल्‍याण चाहने वाले श्रेष्‍ठ पुरुष को पीपल, बड़ और गूलर के फल का तथा सन के साग का सेवन नहीं करना चाहिये।

विद्वान पुरुष हाथ में नमक लेकर न चाटे। रात में दही और सत्‍तू न खाये। मांस अखाद्य वस्‍तु है, उसका सर्वथा त्‍याग कर दे। प्रतिदिन सबेरे और शाम को एकाग्रचित्‍त होकर भोजन करे। बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। जिस भोजन में बाल पड़ गया हो, उसे न खाये तथा शत्रु के श्राद्ध में कभी अन्‍न न ग्रहण करे। भोजन के समय मौन रहना चाहिेये। एक ही वस्‍त्र धारण करके अथवा सोये-सोये कदापि भोजन न करे। भोजन के पदार्थ को भूमि पर रखकर कदापि न खाये। खड़ा होकर या बातचीत करते हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिये।

प्रजानाथ! बुद्धिमान पुरुष पहले अतिथि को अन्न और जल देकर पीछे स्वयं एकाग्रचित्त होकर भोजन करे। नरेश्‍वर! एक पंक्ति में बैठने पर सबको एक समान भोजन करना चाहिये। जो अपने सुहृदजनों को न देकर अकेला ही भोजन करता है, वह हलाहल विष ही खाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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