षडशीत्यधिकशततम (186) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षडशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
जीव की सत्त्तापर नाना प्रकार की युक्तियों से शंका उपस्थित करना भारद्वाज ने पूछा- भगवान! यदि वायु ही प्राणी को जीवित रखती है, वायु ही शरीर को चेष्टाशील बनाती है, वही सांस लेती और वही बोलती भी है, तब तो इस शरीर में जीव की सत्ता स्वीकार करना व्यर्थ ही है। यदि शरीर में गर्मी अग्नि का अंश है, यदि अग्नि से ही खाये हुए अन्न का परिपाक होता है, यदि अग्नि ही सबको जीर्ण करती है, तब तो जीव की सत्ता मानना व्यर्थ ही है। जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है; तब वहाँ जीव की उपलब्धि नहीं होती। प्राणवायु ही इस प्राणी का परित्याग करती है और शरीर की गर्मी नष्ट हो जाती है। यदि जीव वायुमय है, यदि वायु से उसका घनिष्ठ सम्पर्क है, तब तो वायुमण्डल के समान उसे प्रत्यक्ष अनुभव में आना चाहिये। वह मृत्यु के पश्चात वायु के साथ ही जाता हुआ दिखायी देना चाहिये। यदि वायु के साथ जीव का दृढ़ संयोग है और उसी के कारण वह वायु के साथ ही नष्ट हो जाता है, तब तो जैसे जलपात्र में पत्थर भरकर उसे कोई समुद्र में डाल दे और वह डूब जाय, उसी प्रकार वायु के सम्पर्क से ही जीव का विनाश मानना पड़ेगा। उस दशा में जैसे प्रस्तर से पृथक जलपात्र की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार प्राणवायु से पृथक जीव की उपलब्धि होनी चाहिये। अथवा जैसे कुआं में जल गिराया जाय या जलती आग में जला हुआ दीपक डाल दिया जाय, तो वे दोनों शीघ्र ही उनमें प्रविष्ट होकर अपना पृथक अस्तित्व खो बैठते हैं। उसी प्रकार पांचभौतिक शरीर का नाश होने पर जीव भी पांचों तत्त्व में विलीन होकर अपने पृथक अस्तित्व से रहित हो जाना चाहिये, ऐसा मान लेने पर तो पांच भूतों से धारण किये हुए इस शरीर में जीव है ही कहां? अत: यह सिद्ध हुआ कि पांचभौतिक संघात से भिन्न जीव नहीं है, उन पांच तत्त्वों में से किसी एक का अभाव होने पर शेष चारों का भी अभाव हो जाता है- इसमें संशय नहीं है। जल का सर्वथा त्याग करने से शरीर की जलीय अंश का नाश हो जाता है, श्वास रुक जाने से वायु का नाश होता है। उदर का भेदन होने से आकाशत्त्व नष्ट होता है और भोजन बंद कर देने से शरीर के अग्नि तत्त्व का नाश हो जाता है। ज्वर आदि रोग, घाव तथा अन्यान्य प्रकार के क्लेशों से शरीर का पृथ्वीतत्त्व बिखर जाता है। इन पांचों तत्त्वों में से एक तत्त्व को भी यदि हानि पहुँची तो इनका सारा संघात ही पंचत्व को प्राप्त हो जाता है। पांचभौतिक संघात (शरीर) के नष्ट होने पर यदि जीव है तो वह किसके पीछे दौडता है? क्या अनुभव करता है? क्या सुनता है और क्या बोलता है? मृत्यु के समय लोग इस आशा से गोदान करते हैं कि यह गौ परलोक में जाने पर मुझे तार देगी; परंतु जीव तो गोदान करके मर जाते है; फिर वह गौ किसको तारेगी? गौ, गोदान करने वाला मनुष्य तथा उसको लेने वाला ब्राह्मण- ये तीनों जब यहीं मर जाते हैं, तब परलोक में उनका कैसे समागम होता है? इनमें से जो मरता है, उसे या तो पक्षी खा जाते हैं या वह पर्वत के शिखर से गिरकर चूर–चूर हो जाता है अथवा आग में जलकर भस्म हो जाता है। ऐसी दशा में उनका पुन: जीवित होना कैसा सम्भव है? यदि जड़ से कटे हुए वृक्ष का मूल फिर अंकुरित नहीं होता है, केवल उसके बीज ही जमते हैं, तब मरा हुआ मनुष्य फिर कहाँ से आ जायगा? पूर्वकाल में बीजमात्र की सृष्टि हुई थी, जिससे यह जगत चलता आ रहा है। जो लोग मर जाते है, वे तो नष्ट हो जाते हैं और बीज से बीज पैदा होता रहता है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में जीव के स्वरूप पर आक्षेपविषयक एक सौ छियासीवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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