महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-18

एकषष्टितम (61) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डव-सैनिकों द्वारा भीम की स्तुति, श्रीकृष्ण का दुर्योधन पर आक्षेप, दुर्योधन का उत्तर तथा श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों का समाधान एवं शंखध्वनि


धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! रणभूमि में भीमसेन के द्वारा दुर्योधन को मारा गया देख पाण्डवों तथा सृंजयों ने क्या किया?

संजय ने कहा- महाराज! जैसे कोई मतवाला जंगली हाथी सिंह के द्वारा मारा गया हो, उसी प्रकार दुर्योधन को भीमसेन के हाथ से रणभूमि में मारा गया देख श्रीकृष्ण सहित पाण्डव मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। कुरुनन्दन दुर्योधन के मारे जाने पर पांचाल और सृंजय तो अपने दुपट्टे उछालने और सिंहनाद करने लगे। हर्ष में भरे हुए इन पाण्डव वीरों का भार यह पृथ्वी सहन नहीं कर पाती थी। किसी ने धनुष टंकारा, किसी ने प्रत्यंचा खींची, कुछ लोग बड़े-बड़े शंख बजाने लगे और दूसरे बहुत से सैनिक डंके पीटने लगे। आपके बहुत से शत्रु भाँति-भाँति के खेल खेलने और हास-परिहास करने लगे।

कितने ही वीर भीमसेन के पास जाकर इस प्रकार कहने लगे- कौरवराज दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा भारी परिश्रम किया था। आज रणभूमि में उसका वध करके आपने महान एवं दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है। 'जैसे महासमर में इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था, आपके द्वारा किया हुआ यह शत्रु का संहार भी उसी कोटिका है- ऐसा सब लोग समझने लगे हैं। भला, नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डलाकार गतियों से चलते हुए इस शूरवीर दुर्योधन को भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था? आप वैर के समुद्र से पार हो गये, जहाँ पहुँचना दूसरे लोगों के लिये अत्यन्त कठिन है। दूसरे किसी के लिये ऐसा पराक्रम कर दिखाना सर्वथा असम्भव है। वीर! मतवाले गजराज की भाँति आपने युद्ध के मुहाने पर अपने पैर से दुर्योधन के मस्तक को कुचल दिया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। अनघ! जैसे सिंह ने भैंसे का खून पी लिया हो, उसी प्रकार आपने महान युद्ध ठानकर दुःशासन के रक्त का पान किया है, यह भी सौभाग्य की बात है। 'जिन लोगों ने धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का अपराध किया था, उन सबके मस्तक पर आपने अपने पराक्रम द्वारा पैर रख दिया, यह कितने हर्ष का विषय है। भीम! शत्रुओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और दुर्योधन को मार डालने से भाग्यवश इस भूखण्ड में आपका महान यश फैल गया है। भारत! निश्चय ही वृत्रासुर के मारे जाने परबन्दी जनों ने जिस प्रकार इन्द्र का अभिनन्दन किया था, उसी प्रकार हम शत्रुओं का वध करने वाले आपक अभिनन्दन करते हैं। भरतनन्दन! दुर्योधन के वध के समय हमारे शरीर में जो रोंगटे खड़े हुए थे, वे अब भी ज्यों के त्यों है, गिर नहीं रहे हैं। इन्हें आप देख लें।

प्रशंसा करने वाले वीरगण वहाँ एकत्र होकर भीमसेन से उपर्युक्त बातें कह रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि पुरुष सिंह पांचाल और पाण्डव अयोग्य बातें कह रहे हैं, तब वे वहाँ उन सबसे बोले- नरेश्वरों! मरे हुए शत्रु को पुनः मारना उचित नहीं है। तुम लोगों ने इस मन्दबुद्धि दुर्योधन को बारंबार कठोर वचनों द्वारा घायल किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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