महाभारत वन पर्व अध्याय 202 श्लोक 1-21

द्वयधिकद्विशततमो (202) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्‍याय : श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


उत्तंक का राजा बृहदश्व से धुन्‍धु का वध करने के लिये आग्रह

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन्! महाराज इक्ष्वाकु के देहावसान के पश्‍यचात उनके परम धर्मात्‍मा पुत्र शशाद इस पृथ्‍वी पर राज्‍य करने लगे। वे अयोध्या में रहते थे। शशाद के पुत्र पराक्रमी ककुत्‍स्‍थ हुए। ककुत्स्थ के पुत्र अनेना और अनेना के पृथु हुए। पृथु के विष्‍वगश्व और उनके पुत्र अद्रि हुए। अद्रि के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व का पुत्र श्राव नाम से विख्‍यात हुआ। श्राव का पुत्र श्रावस्त हुआ, जिसने श्रावस्‍तीपुरी बसायी थी। श्रावस्‍त के ही पुत्र महाबली बृहदश्व थे। बृहदश्व के ही पुत्र का नाम कुवलाश्व था। कुवलाश्व के इक्‍कीस हजार पुत्र हुए। वे सब के सब सम्‍पूर्ण विद्याओं में पारंगत, बलवान् और दुर्धर्ष वीर थे। कुवलाश्व उत्तम गुणों में अपने पिता से बढ़कर निकले।

महाराज! राजा बृहदश्व ने यथासमय अपने उत्तम धर्मात्‍मा शुरवीर पुत्र कुवलाश्व को राज्‍य पर अभिषिक्‍त कर दिया। शत्रुओं का संहार करने वाले बुद्धिमान राजा बृहदश्व राजलक्ष्‍मी का भार पुत्र पर छोड़कर स्‍वयं तपस्‍या के लिये तपोवन में चले गये। राजन्! तदनन्‍तर द्विजश्रेष्‍ठ उत्तंक ने यह सुना कि राजर्षि बृहदश्व वन को चले जा रहे हैं। वे नरश्रेष्‍ठ नरेश सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-शस्‍त्रों के विद्वानों में सर्वोत्तम थे। विशाल हृदय वाले महातेजस्‍वी उत्तंक ने उनके पास जाकर उन्‍हें वन में जाने से रोका और इस प्रकार कहा। उत्तंक बोले- महाराज! प्रजा की रक्षा करना आपका कर्तव्‍य है। अत: पहले वही आपको करना चाहिये, जिससे आपके कृपाप्रसाद से हम लोग निर्भय हो जायें। राजन्! आप जैसे महात्‍मा राजा से सुरक्षित होकर ही पृथ्‍वी सर्वथा भयशून्‍य हो जायेगी। अत: आप वन में न जाइये। क्‍योंकि आपके लिये यहाँ रहकर प्रजाओं का पालन करने में जो महान् धर्म देखा जाता है, वैसा वन में रहकर तपस्‍या करने में नहीं दिखायी देता। अत: आपकी ऐसी समझ नहीं होनी चाहिये।

राजेन्‍द्र! पूर्वकाल के राजर्षियो ने जिस धर्म का पालन किया है, वह प्रजाजनों के पालन में ही सुलभ है ऐसा धर्म और किसी कार्य में नहीं दिखायी देता। राजा के लिये प्रजाजनों का पालन करना ही धर्म है। अत: आपको प्रजावर्ग की रक्षा ही करनी चाहिये। भूपाल! मैं शान्तिपूर्वक तपस्‍या नहीं कर पा रहा हूँ। मेरे आश्रम के समीप समस्‍त मरु प्रदेश में एक बालू से पूर्ण अर्थात् बालुकामय समुद्र है, उसके नाम है उज्‍जालक। उसकी लम्‍बाई-चौड़ाई कई योजन की है। वहाँ महान् बल और पराक्रम से सम्‍पन्न एक भयंकर दानवराज रहता है, जो मधु और कैटभ का पुत्र है। वह क्रूर-स्‍वभाव वाला राक्षस धुन्धु नाम से प्रसिद्ध है। राजन्! वह अमित पराक्रमी दानव धरती के भीतर छिपकर रहा करता है। महाराज! उसका नाश करके ही आपको वन में जाना चाहिये। भूपाल! वह सम्‍पूर्ण लोकों और देवताओं के विनाश के लिये कठोर तपस्‍या का आश्रय लेकर (पृथ्‍वी) शयन करता है। राजन्! वह सम्‍पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी से वर पाकर देवताओं, दैत्‍यों, राक्षसों, नागों, यक्षों और समस्‍त गन्‍धर्वों के लिये अवध्‍य हो गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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