महाभारत वन पर्व अध्याय 159 श्लोक 1-19

एकोनषष्टयधिकशततम (159) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकोनषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


प्रश्न के रूप में आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजर्षि आर्ष्टिषेण ने तपस्या द्वारा अपने सारे पाप दग्ध कर दिये थे। राजा युधिष्ठिर ने उनके पास जाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपना नाम बताते हुए उनके चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। तदनन्तर द्रौपदी, भीमसेन और परम तेजस्वी नकुल-सहदेव -ये सभी मस्तक झुकाकर उन राजर्षि को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। उसी प्रकार पाण्डवों के पुरोहित धर्मज्ञ धौम्य जी कठोर व्रत का पालन करने वाले राजर्षि आर्ष्टिषेण के पास यथोचित शिष्टाचार के साथ उपस्थित हुए। उन धर्मज्ञ मुनि आर्ष्टिषेण ने अपनी दिव्यदृष्टि से कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों को जान लिया और कहा- 'आप सब लोग बैठें।' महातपस्वी आर्ष्टिषेण ने भाइयों सहित कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर का यथोचित आदर-सत्कार किया और जब वे बैठ गये, तब उनसे कुशल-समाचार पूछा- 'कुन्तीनन्दन! कभी झूठ की ओर तो तुम्हारा मन नहीं जाता? तुम धर्म में लगे रहते हो न? माता-पिता के प्रति जो तुम्हारी सेवावृत्ति होनी चाहिये, वह है न? उसमें शिथिलता तो नहीं आयी है? क्या तुमने समस्त गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों और विद्वानों का सदा समादर किया है?

पार्थ! कभी पाप कर्मों में तो तुम्हारी रुचि नहीं होती है? कुरुश्रेष्ठ! क्या तुम अपने उपकारी को उसके उपकार का यथोचित बदला देना जानते हो? क्या तुम्हें अपना अपकार करने वाले मनुष्य की उपेक्षा कर देने की कला का ज्ञान है? तुम अपनी बड़ाई तो नहीं करते? क्या तुमसे यथायोग्य सम्मानित होकर साधुपुरुष तुम पर प्रसन्न रहते हैं? क्या तुम वन में रहते हुए भी सदा धर्म का ही अनुसरण करते हो? पार्थ! तुम्हारे आचार-व्यवहार से पुरोहित धौम्य जी को क्लेश तो नहीं पहुँचता है? कुन्तीनन्दन! क्या तुम दान, धर्म, तप, शौच, सरलता और क्षमा आदि के द्वारा अपने बाप-दादों के आचार-व्यवहार का अनुसरण करते हो?

पाण्डुनन्दन! प्राचीन राजर्षि जिस मार्ग से गये हैं, उसी पर तुम भी चलते हो न? कहते हैं, जब-जब अपने-अपने कुल में पुत्र अथवा नाती का जन्म होता है, तब-तब पितृलोक में रहने वाले पितर शोकमग्न होते हैं और हंसते भी हैं। शोक तो उन्हें यह सोचकर होता है कि 'क्या हमें इसके पाप में हिस्सा बंटाना पड़ेगा?' और हंसते इसलिये हैं कि 'क्या हमें इसके पुण्य का कुछ भाग मिलेगा? यदि ऐसा हो तो बड़ा अच्छी बात हैं'। 'पार्थ! जिसके द्वारा पिता, माता, अग्नि, गुरु और आत्मा-इन पांचों का आदर होता है, वह यह लोक और परलोक दोनों को जीत लेता है'।

युधिष्ठिर ने कहा- 'भगवन्! आर्यचरण! आपने मुझे यह धर्म का निचोड़ बताया है। मैं अपनी शक्ति के अनुसार यथोचित रीति से विधिपूर्वक इसका पालन करता हूँ।' आर्ष्टिषेण बोले- पार्थ! पर्वों की संधिवेला में (पूर्णिमा तथा प्रतिपदा की संधि में) बहुत-से ऋषिगण आकाशमार्ग से उड़ते हुए आते हैं और इस श्रेष्ठ पर्वत का सेवन करते हैं। उनमें से कितने तो केवल जल पीकर जीवन-निर्वाह करते हैं और कितने केवल वायु पीकर रहते हैं। राजन! कितने ही किम्पुरुष जाति के कामी अपनी कामिनियों के साथ परस्पर अनुरक्तभाव से यहाँ क्रीड़ा के लिये आते हैं, और पर्वत के शिखरों पर घूमते दिखायी देते हैं। कुन्तीकुमार! गन्धर्वों और अप्सराओं के बहुत-से गुण यहाँ देखने में आते हैं, उनमें से कितने ही स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं और कितने ही रेशमी वस्त्रों से सुशोभित होते हैं। विद्याधरों के गण भी सुन्दर फूलों के हार पहने अत्यन्त मनोहर दिखायी देते हैं, इनके सिवा बड़े-बड़े नागगण, सुपर्णजातीय पक्षी तथा सर्प आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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