अष्टपंचाशदधिकशततम (158) अध्याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 78-130 का हिन्दी अनुवाद
वकोदर! हम लोग ऐसे स्थान पर आ गये हैं, जो मानवों के लिये अगम्य है। जान पड़ता है, हम सिद्ध हो गये हैं। कुन्तीनन्दन! गन्धमादन के शिखरों पर ये फूलों से भरे हुए उत्तम वृक्ष इन पुष्पित लताओं से अलंकृत होकर कैसी शोभा पा रहे हैं? भीम! इन पर्वत-शिखरों पर मोरिनियों के साथ विचरते बोलते हुए मोरों का यह मधुर केकारव तो सुनो। ये चकोर, शतपत्र, मदोन्मत्त कोकिल और सारिका आदि पक्षी इन पुष्पण्डित विशाल वृक्षों की ओर कैसे उड़े जा रहे हैं? पार्थ! वृक्षों की ऊँची शिखाओं पर बैठे हुए लाल, गुलाबी और पीले रंग के चकोर पक्षी एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं। उधर हरी और लाल घासों के समीप पर्वतीय झरनों के पास सारस दिखायी देते हैं। भृंगराज, उपचक्र (चक्रवाक) और लोहपृष्ठ (कंक) नामक पक्षी ऐसी मीठी बोली बोलते हैं, जो समस्त प्राणियों के मन को मोह लेती है। इधर देखो, ये कमल के समान कान्ति वाले गजराज, जिनके चार दांत शोभा पा रहे हैं, हथिनियों के साथ आकर वैदूर्य मणि के समान सुशोभित इस महान् सरोवर को मथे डालते हैं। अनेक झरनों से जल की धाराएं गिर रहीं हैं। जिनकी ऊँचाई कई ताड़ के बराबर है और ये पर्वतों के सर्वोच्च शिखर से नीचे गिरती हैं। नाना प्रकार के रजतमय धातु इस महान पर्वत की शोभा बढ़ा रहे हैं। इनमें से कुछ तो अपनी प्रभाओं से भगवान भास्कर के समान प्रकाशित होते हैं और कुछ शरद ऋतु के श्वेत बादलों के समान सुशोभित हो रहे हैं। कहीं काजल के समान काले और सुवर्ण के समान पीले रंग के धातु दीख पड़ते हैं। कहीं हरिताल सम्बन्धी धातु हैं और कहीं हिंगुल सम्बन्धी। कहीं मैनसिल की गुफाएं हैं, जो संध्याकालीन लाल बादलों के समान जान पड़ती हैं। कहीं गेरु नामक धातु हैं, जिनकी कान्ति लाल खरगोश के समान दिखायी देती है। कोई धातु श्वेत बादलों के समान हैं, तो कोई काले मेघों के समान। कोई प्रातःकाल के सूर्य की भाँति लाल रंग के हैं। ये नाना प्रकार की परम कांतिमान् धातु समूचे शैल की शोभा बढ़ाती है। पार्थ! जिस प्रकार वृषपर्वा ने कहा था, उसी प्रकर इन पर्वतीय शिखरों पर अपनी प्रेयसी अप्सराओं तथा किम्पुरुषों के साथ गन्धर्व दृष्टिगोचर होते हैं। भीमसेन! यहाँ सम ताल से गाते हुए गीतों तथा मंत्रों का विविध स्वर सुनायी पड़ता है, जो सम्पूर्ण भूतों के चित्त को आकर्षित करने वाला है। यह परम पवित्र एवं कल्याणमयी देवनदी महागंगा है, इनका दर्शन करो। यहाँ हंसों के समुदाय निवास करते हैं तथा ऋषि एवं किन्नरगण सदा इन (गंगाजी) का सेवन करते हैं। शत्रुदमन भीम! भाँति-भाँति के धातुओं, नदियों, किन्नरों, मृगों, पक्षियों, गन्धर्वों, अप्सराओं, मनोरम काननों तथा सौ मस्तक वाले भाँति-भाँति के सर्पों से सम्पन्न इस पर्वतराज का दर्शन करो'। वैशम्पायन जी कहते हैं- इस प्रकार वे शूरवीर पाण्डव हर्षपूर्ण हृदय से अपने परम उत्तम लक्ष्य स्थान को पहुँच गये। गिरिराज गन्धमादन का दर्शन करने से उन्हें तृप्ति नहीं होती थी। तदनन्तर परंतप पाण्डवों ने पुष्पमालाओं तथा फलवान वृक्षों से सम्पन्न राजर्षि आर्ष्टिषेण का आश्रम देखा। फिर वे कठोर तपस्वी दुर्बलकाय तथा नस-नाड़ियों से ही व्याप्त राजर्षि आर्ष्टिषेण के समीप गये, जो सम्पूर्ण धर्मों के पारगंत विद्वान् थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में गन्धमादन प्रवेश विषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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