महाभारत वन पर्व अध्याय 110 श्लोक 1-16

दशाधिकशततम (110) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


नन्दा तथा कौशिकी का माहात्म्य, ऋष्यशृंग मुनि का उपाख्यान और उनको अपने राज्य में लाने के लिये राजा लोमपाद का प्रयत्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठि‍र क्रमश: आगे बढ़ने लगे। उन्होंने पाप और भय का निवारण करने वाली नन्दा और अपरनन्दा- इन दो नदियों की यात्रा की। तत्पश्चात रोग-शोक से रहित हेमकूट पर्वत पर पहुँच कर राजा युधिष्ठि‍र ने वहाँ बहुत-सी अचिन्त्य एवं अद्भुत बातें देखीं। वहाँ वायु का सहारा लिये बिना ही बादल उत्पन्न हो जाते और अपने आप हजारों पत्थर (ओले) पड़ने लगते थे। जिनके मन में खेद भरा होता था, ऐसे मनुष्‍य उस पर्वत पर चढ़ नहीं सकते थे। वहाँ प्रतिदिन हवा चलती ओर रोज-रोज मेघ वर्षा करता था। वेदों के स्वाध्याय की ध्वनि तो सुनायी पड़ती, परंतु स्वाध्याय करने वाले का दर्शन नहीं होता था। सायंकाल और प्रात:काल भगवान अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते थे। तपस्या में विघ्न डालने वाली मक्खियां वहाँ लोगों को डंक मारती रहती थीं, अत: वहाँ विरक्ति होती और लोग घरों की याद करने लगते थे।

इस प्रकार बहुत-सी अद्भुत बातें देखकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने लोमश जी से पुन: इस अद्भुत अवस्था के विषय में पूछा। युधिष्ठिर ने कहा- 'महातेजस्वी भगवन! इस परम तेजोमय पर्वत पर जो ये आश्चर्यजनक बातें होती हैं, इसका क्या रहस्य है? यह सब विस्तारपूर्क मुझे बताइये।' तब लोमश जी ने कहा- 'शत्रुसूदन! हमने पूर्वकाल में जैसा सुन रखा है, वैसा बताया जाता है। तुम एकाग्रचित्त हो मेरे मुख से इसका रहस्य सुनो।

पहले की बात है, इस ऋषभकूट पर ऋषभ नाम से प्रसिद्ध एक तपस्वी रहते थे। उनकी आयु कई सौ वर्षों की थी। वे तपस्वी होने के साथ ही बड़े क्रोधी थे। उन्होंने दूसरों के बुलाने पर कुपित होकर उस पर्वत से कहा- 'जो कोई यहाँ पर बातचीत करे, उस पर तू ओले बरसा।' इसी प्रकार वायु को भी बुलाकर उन तपस्वी मुनि ने कहा- 'देखो, यहाँ किसी प्रकार का शब्द नहीं होना चाहिये।' तब से जो कोई पुरुष यहाँ बोलता है, उसे मेघ की गर्जना द्वारा रोका जाता है। राजन! इस प्रकार उन महर्षि ‍ने ही ये अदभूत कार्य किये है। उन्होंने क्रोधवश कुछ कार्यों का विधान और कुछ बातों का नि‍षेध कर दिया है।

राजन! यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में देवता लोग नन्दा के तट पर आये थे, उस समय उनके दर्शन की इच्छा से बहुतेरे मनुष्‍य सहसा वहाँ आ पहुँचे। इन्द्र आदि देवता उन्हें दर्शन देना नहीं चाहते थे, अत: विघ्नस्वरूप इस पर्वतीय प्रदेश को उन्‍होंने जनसाधारण के लिये दुर्गम बना दिया। कुन्तीनन्दन! तभी से साधारण मनुष्‍य इस पर्वत को देख भी नहीं सकते, चढ़ना तो दूर की बात है। कुन्तीकुमार! जिसने तपस्या नहीं की है, वह मनुष्‍य इस महान पर्वत को न तो देख सकता है और न चढ़ ही सकता है; अत: मौन व्रत धारण करो। उन दिनों सम्पूर्ण देवताओं ने यहाँ आकर उत्तम यज्ञों का अनुष्‍ठान किया था। भारत! उनके ये चिह्न आज भी प्रयत्‍क्ष देखे जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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