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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
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− | + | राजन उस समय वेदवेत्ता विद्वान ब्राह्मणों ने हंस के समान हर्ष गद्गद स्वर से जो प्रचुर अर्थ पद अक्षरों से युक्त वाणी कही थी। वह वहाँ सब को स्पष्ट सुनाई दे रही थी। नरेश्वर तदनन्तर दुन्दुभियों और शंखों की मनोरम ध्वनि होने लगी जय जयकार करने वालों का गम्भीर घोष प्रकट होने लगा। जब सब ब्राह्मण चुपचाप खडे़ हो गये, तब [[ब्राह्मण]] के वेश बनाकर आया हुआ [[चार्वाक]] नामक राक्षस [[युधिष्ठिर|राजा युधिष्ठिर]] से कुछ कहने को उद्यम हुआ। वह [[दुर्योधन]] का मित्र था। उसने संन्यासी के वेश में अपने असली रुप को छिपा रखा था उसके हाथ में अक्षमाला थी और मस्तक पर शिखा उसने त्रिदंड धारण कर रखा था। वह बड़ा ढीठ और निर्भय था। राजेंद्र तपस्या और नियम में लगे रहने वाले और आशीर्वाद देने के इच्छुक उन समस्त ब्राह्मणों से जिनकी संख्या हजार से भी अधिक थी घिरा हुआ वह दुष्ट राक्षस महात्मा [[पांडव|पांडवों]] का विनाश चाहता था। उसने सब ब्राह्मणों से अनुमति के बिना ही [[युधिष्ठिर|राजा युधिष्ठिर]] से कहा। | |
− | [[वैशम्पायन|वैशम्पायन जी]] कहते हैं- राजन प्रजानाथ उनकी ये बात सुनकर सब ब्राह्मण बोल उठे- महाराज ये हमारी बात नहीं कह रहा है। हम तो ये आशीर्वाद देते हैं कि आपकी राजलक्ष्मी सदा बनी रहें। उन वेदवेत्ता ब्राह्मणों का अंत करण तपस्या से निर्मल गया | + | चार्वाक बोला- राजन यह सब ब्राह्मण मुझ पर अपनी बात कहने का भार रखकर मेरे द्वारा ही तुमसे कह रहे हैं- कुंतीनंदन तुम अपने भाई बंधुओं के वध करने वाले एक दुष्ट राजा हो तुम्हें धिक्कार है। ऐेसे पुरुष के जीवन से क्या लाभ इस प्रकार यह बंधु बान्धवों का विनाश करके गुरुजनों की हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है। जीवित रहना नहीं। वे [[ब्राह्मण]] उस दुष्ट राक्षस की ये बात सुनकर उसके वचनों से तीरस्कृत हो व्यथित हो उठे और मन ही मन उसके कथन की निंदा करने लगे। प्रजानाथ इसके बाद वे सभी [[ब्राह्मण]] तथा राजा युधिष्ठिर अत्यंत उद्विग्न और लज्जित हो गए प्रतिवाद के रुप में उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला व सभी कुछ देर तक चुप रहें। तत्पश्चात [[युधिष्ठिर|राजा युधिष्ठिर]] ने कहा- [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] में आपके चरणों में प्रणाम करके विनीत भाव से यह प्रार्थना करता हूँ कि आप लोग मुझ पर प्रसन्न हो इस समय मुझ पर सबसे बड़ी भारी विपत्ति आ गई है आप लोग मुझे धिक्कार न दें। |
− | [[ब्राह्मण]] बोले धर्मात्मन ये [[दुर्योधन]] का मित्र का | + | |
+ | [[वैशम्पायन|वैशम्पायन जी]] कहते हैं- राजन प्रजानाथ उनकी ये बात सुनकर सब ब्राह्मण बोल उठे- महाराज ये हमारी बात नहीं कह रहा है। हम तो ये आशीर्वाद देते हैं कि आपकी राजलक्ष्मी सदा बनी रहें। उन वेदवेत्ता ब्राह्मणों का अंत:करण तपस्या से निर्मल गया था। उनमें महात्माओं ने ज्ञान दृष्टि से राक्षस को पहचान लिया। | ||
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+ | [[ब्राह्मण]] बोले- धर्मात्मन ये [[दुर्योधन]] का मित्र का चार्वाक नामक राक्षस है। जो संन्यासी के रुप में यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है। हम लोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं। आपका इस तरह का भय दूर हो जाना चाहिए। हम आशीर्वाद देते हैं कि भाइयों सहित आपको कल्याण की प्राप्ति हो। | ||
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+ | [[वैशम्पायन|वैशम्पायन जी]] कहते हैं- [[जनमेजय]] तदंतर क्रोध से आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] ने पापात्मा राक्षस को बहुत फटकारा और अपने हुँकारों से उसे नष्ट कर दिया। ब्राह्मणवादी महात्माओं के तेज से दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा मानो [[इंद्र]] के वज्र से जलकर कोई अंकुरयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो। तत्पश्चात राजा द्वारा पूजित हुए वे उनका अभिनंदन करके चले गए और पांडुपुत्र [[युधिष्ठिर|राजा युधिष्ठिर]] से अपने संदेश सहित बड़े हर्ष को प्राप्त हुए। | ||
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+ | <h4 style="text-align:center">इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में चार्वाक का वधविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</h4> | ||
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16:26, 15 मार्च 2018 का अवतरण
विषय सूची
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद
चार्वाक बोला- राजन यह सब ब्राह्मण मुझ पर अपनी बात कहने का भार रखकर मेरे द्वारा ही तुमसे कह रहे हैं- कुंतीनंदन तुम अपने भाई बंधुओं के वध करने वाले एक दुष्ट राजा हो तुम्हें धिक्कार है। ऐेसे पुरुष के जीवन से क्या लाभ इस प्रकार यह बंधु बान्धवों का विनाश करके गुरुजनों की हत्या करवाकर तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है। जीवित रहना नहीं। वे ब्राह्मण उस दुष्ट राक्षस की ये बात सुनकर उसके वचनों से तीरस्कृत हो व्यथित हो उठे और मन ही मन उसके कथन की निंदा करने लगे। प्रजानाथ इसके बाद वे सभी ब्राह्मण तथा राजा युधिष्ठिर अत्यंत उद्विग्न और लज्जित हो गए प्रतिवाद के रुप में उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला व सभी कुछ देर तक चुप रहें। तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर ने कहा- ब्राह्मणों में आपके चरणों में प्रणाम करके विनीत भाव से यह प्रार्थना करता हूँ कि आप लोग मुझ पर प्रसन्न हो इस समय मुझ पर सबसे बड़ी भारी विपत्ति आ गई है आप लोग मुझे धिक्कार न दें। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन प्रजानाथ उनकी ये बात सुनकर सब ब्राह्मण बोल उठे- महाराज ये हमारी बात नहीं कह रहा है। हम तो ये आशीर्वाद देते हैं कि आपकी राजलक्ष्मी सदा बनी रहें। उन वेदवेत्ता ब्राह्मणों का अंत:करण तपस्या से निर्मल गया था। उनमें महात्माओं ने ज्ञान दृष्टि से राक्षस को पहचान लिया। ब्राह्मण बोले- धर्मात्मन ये दुर्योधन का मित्र का चार्वाक नामक राक्षस है। जो संन्यासी के रुप में यहाँ आकर उसका हित करना चाहता है। हम लोग आपसे कुछ नहीं कहते हैं। आपका इस तरह का भय दूर हो जाना चाहिए। हम आशीर्वाद देते हैं कि भाइयों सहित आपको कल्याण की प्राप्ति हो। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय तदंतर क्रोध से आतुर हुए उन सभी शुद्धात्मा ब्राह्मणों ने पापात्मा राक्षस को बहुत फटकारा और अपने हुँकारों से उसे नष्ट कर दिया। ब्राह्मणवादी महात्माओं के तेज से दग्ध होकर वह राक्षस गिर पड़ा मानो इंद्र के वज्र से जलकर कोई अंकुरयुक्त वृक्ष धराशायी हो गया हो। तत्पश्चात राजा द्वारा पूजित हुए वे उनका अभिनंदन करके चले गए और पांडुपुत्र राजा युधिष्ठिर से अपने संदेश सहित बड़े हर्ष को प्राप्त हुए।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में चार्वाक का वधविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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