महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 34 श्लोक 19-32

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद


जो ब्राह्मणोचित आचार से भ्रष्ट होकर आततायी बन गया हो- हाथ में हथियार लेकर मारने आ रहा हो, ऐसे ब्राह्मण को मारने से ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगता। क्रोध ही उसके क्रोध का सामना करता है। अनजान में अथवा प्राण संकट के समय भी यदि मदिरापान कर ले तो बाद में धर्मात्मा पुरुषों की आज्ञा के अनुसार उसका पुनः संस्कार होना चाहिये। कुन्तीनन्दन! यही बात अन्य सब अभक्ष्यभक्षणों के विषय में भी कही गयी है। प्रायश्चित्त कर लेने से सब शुद्ध हो जाता है। गुरु की आज्ञा से उन्हीं के प्रयोजन की सिद्धि के लिये गुरु की शय्या पर शयन करना मनुष्य को दूषित नहीं करता है। उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को शिष्य द्वारा उत्पन्न कराया था। (चोरी सर्वथा निषिद्ध है) किंतु आपत्तिकाल में कभी गुरु के लिये चोरी करने वाला पुरुष दोष का भागी नहीं होता है। यदि मन में कामना रखकर बारंबार उस चौर्य-कर्म में वह प्रवृत्त न होता हो तो आपत्ति के समय ब्राह्मण के सिवा किसी दूसरे का धन लेने वाला मनुष्य पाप का भागी नहीं होता है। जो स्वयं उस चोरी का अन्न नहीं खाता, वह भी चौर्यदोष से लिप्त नहीं होता है। अपने या दूसरे के प्राण बचाने के लिये, गुरु के लिये, एकान्त में अपने स्त्री के पास विनोद करते समय अथवा विवाह के प्रसंग में झूठ बोल दिया जाय तो पाप नहीं लगता है।

यदि किसी कारण से स्वप्न में वीर्य स्खलित हो जाय तो इससे ब्रह्मचारी के लिये दुबारा व्रत लेने- उपनयन-संस्कार कराने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिये प्रज्वलित अग्नि में घी का हवन करना प्रायश्चित्त बताया गया है। यदि बड़ा भाई पतित हो जाय या संन्यास ले ले तो उसके अविवाहित रहते हुए भी छोटे भाई का विवाह कर लेना दोष की बात नहीं है। संतान-प्राप्ति के लिये स्त्री द्वारा प्रार्थना करने पर यदि कभी पर स्त्रीसंगम किया जाय तो वह धर्म का लोप करने वाला नहीं होता है। मनुष्य को चाहिये कि वह व्यर्थ ही पशुओं का वध न तो करे और न करावे। विधिपूर्वक किया हुआ पशुओं का संस्कार उन पर अनुग्रह है। यदि अनजाने में किसी अयोग्य ब्राह्मण को दान दे दिया जाय अथवा योग्य ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक दान न दिया जा सके तो वह दोषकारक नहीं होता। यदि व्यभिचारिणी स्त्री का तिरस्कार किया जाय तो वह दोष की बात नहीं है। उस तिरस्कार से स्त्री की तो शुद्धि होती है और पति भी दोष का भागी नहीं होता। सोमरस के तत्त्व को जानकर यदि उसका विक्रय किया जाय तो बेचने वाला दोष का भागी नहीं होता। जो सेवक काम करने में असमर्थ हो जाय, उसे छोड़ देने से भी दोष नहीं लगता। गौओं की सुविधा के लिये यदि जंगल में आग लगायी जाय जो उससे पाप नहीं होता है। भरतनन्दन! ये सब मैंने वे कर्म बताये हैं जिन्हें करने वाला दोष का भागी नहीं होता है। अब मैं विस्तारपूर्वक प्रायश्चित्तों का वर्णन करूँगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में प्रायश्चित्त के प्रकरण में चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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