"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 339 श्लोक 62-76" के अवतरणों में अंतर

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(वे वरदान इस प्रकार हैं- ) ‘ब्रह्मन्! तुम प्रत्येक कल्प के आदि में मेंरे पुत्ररूप से उत्पन्न होओगे। तुम्हें लोकाध्यक्ष का पद प्राप्त होगा। तुम्हारा पर्यायवाचीद नाम होगा, अहंकारकर्ता। तुम्हारी बाँधी हुई मर्यादा का कोई उल्लंघन नहीं करेगा’। ‘ब्रह्मन्! तुम वर चाहने वाले साधकों को वर देने में समर्थ होओगे। कठोर व्रत का पालन करने वाले महाभाग तपोधन! तुम देवताओं, असुरों, ऋषियों, पितरों तािा नाना प्रकार के प्राणियों के सदा ही उपासनीय होओगे’।।63-64।। ‘ब्रह्मन्! जब मैं देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये अवतार धारण करूँ, उन दिनों सदा तुम मुझपर शासन करना और पुत्र की भाँति मुझे प्रत्येक कार्य में नियुक्त करना’। ‘नारद! अमित तेजस्वी ब्रह्मा को ये तथा और भी बहुत से सुन्दर वर देकर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवृत्ति परायण हो गया’।
 
(वे वरदान इस प्रकार हैं- ) ‘ब्रह्मन्! तुम प्रत्येक कल्प के आदि में मेंरे पुत्ररूप से उत्पन्न होओगे। तुम्हें लोकाध्यक्ष का पद प्राप्त होगा। तुम्हारा पर्यायवाचीद नाम होगा, अहंकारकर्ता। तुम्हारी बाँधी हुई मर्यादा का कोई उल्लंघन नहीं करेगा’। ‘ब्रह्मन्! तुम वर चाहने वाले साधकों को वर देने में समर्थ होओगे। कठोर व्रत का पालन करने वाले महाभाग तपोधन! तुम देवताओं, असुरों, ऋषियों, पितरों तािा नाना प्रकार के प्राणियों के सदा ही उपासनीय होओगे’।।63-64।। ‘ब्रह्मन्! जब मैं देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये अवतार धारण करूँ, उन दिनों सदा तुम मुझपर शासन करना और पुत्र की भाँति मुझे प्रत्येक कार्य में नियुक्त करना’। ‘नारद! अमित तेजस्वी ब्रह्मा को ये तथा और भी बहुत से सुन्दर वर देकर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवृत्ति परायण हो गया’।
‘समस्त कर्मों से उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है; अतः जो निवृत्ति को प्राप्त हो गया है, वह सभी अंगों से सुखी होकर विचरण करे’। ‘सांख्यशास्त्र के सिद्धान्त का निश्चय करने वाले आचार्यगण मुण्े ही विद्या की सहायता से युक्त, सूर्यमण्डल में स्थित एवं समाहितचित्त कपिल कहते हैं’। ‘वेद में जिनकी स्तुति की गयी है, वे भगवान् हिरण्यगर्भ मेरे ही स्वरूप हैं। ब्रह्मन्! योगी लोग जिसमें रमण करते हैं, वह योगशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष विशेष ईश्वर भी मैं ही हूँ’। ‘इस समय मैं सनातन परमातमा ही व्यक्तरूप धारण करके आकाश में स्थित हूँ। फिर एक सहस्र चतुर्यग व्यतीत होने पर मैें ही इस जगत् का संहार करूँगा’। ‘उस समय सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अपने में लीन करके मैं अकेला ही अपनी विद्या-शक्ति के साथ सूने संसार में विहार करूँगा’।‘तदनन्तर सृष्टि का समय आने पर फिर उस विद्याशक्ति के ही द्वारा संसार के सारे चराचर प्राणियों की सृष्टि करूँगा। मेरी जो चार मूर्तियाँ हैं, उनमें जरे चैथी वासुदेव मूर्ति है, उसने अविनाशी शेष उत्पन्न किया है’। ‘उस शेष को ही संकर्षण कहा गया है। संकर्षण ने प्रद्युम्न को प्रकट किया है और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का आविर्भाव हुआ है। वह सब मैं ही हूँ। बारंबार उत्पन्न होने वाला यह सृष्टि विस्तार मेरा ही है’। ‘मेरी अनिरुद्ध मूर्ति से ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं, जिनका प्राकट्य मेरे नाभिकमल से हुआ है। ब्रह्मा से समसत चराचर भूत उत्पन्न हुए हैं’। ‘कल्प के आदि में बारंबार इस सृष्टि को मैं प्रकट करता हूँ (और अन्त में इसका संहार कर डालता हूँ)। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। जैसे आकाश से सूर्य का उदय हांता है और आकाश में ही वह असत होता है- ये उदय-अस्त के क्रम सदा चलते रहते हैं (उसी प्रकार मुण्से ही जगत् की उत्पत्ति होती है और मुझमें ही उसका लय होता है। यह सृष्टि और संहार का क्रम यों ही चला करता है)’।‘जैसे अमित तेजस्वी काल सूर्य के अदृश्य होने पर पुनः बलपूर्वक उसे दृष्टिपथ में ला देता है, उसी प्रकार मैं भी समसत प्राणियों के हित के लिये इस पृथ्वी को समुद्र के जल से बलपूर्वक ऊपर लाता हूँ’।
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‘समस्त कर्मों से उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है; अतः जो निवृत्ति को प्राप्त हो गया है, वह सभी अंगों से सुखी होकर विचरण करे’। ‘सांख्यशास्त्र के सिद्धान्त का निश्चय करने वाले आचार्यगण मुण्े ही विद्या की सहायता से युक्त, सूर्यमण्डल में स्थित एवं समाहितचित्त कपिल कहते हैं’। ‘वेद में जिनकी स्तुति की गयी है, वे भगवान् हिरण्यगर्भ मेरे ही स्वरूप हैं। ब्रह्मन्! योगी लोग जिसमें रमण करते हैं, वह योगशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष विशेष ईश्वर भी मैं ही हूँ’। ‘इस समय मैं सनातन परमात्मा ही व्यक्तरूप धारण करके आकाश में स्थित हूँ। फिर एक सहस्र चतुर्यग व्यतीत होने पर मैें ही इस जगत् का संहार करूँगा’। ‘उस समय सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अपने में लीन करके मैं अकेला ही अपनी विद्या-शक्ति के साथ सूने संसार में विहार करूँगा’।‘तदनन्तर सृष्टि का समय आने पर फिर उस विद्याशक्ति के ही द्वारा संसार के सारे चराचर प्राणियों की सृष्टि करूँगा। मेरी जो चार मूर्तियाँ हैं, उनमें जरे चैथी वासुदेव मूर्ति है, उसने अविनाशी शेष उत्पन्न किया है’। ‘उस शेष को ही संकर्षण कहा गया है। संकर्षण ने प्रद्युम्न को प्रकट किया है और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का आविर्भाव हुआ है। वह सब मैं ही हूँ। बारंबार उत्पन्न होने वाला यह सृष्टि विस्तार मेरा ही है’। ‘मेरी अनिरुद्ध मूर्ति से ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं, जिनका प्राकट्य मेरे नाभिकमल से हुआ है। ब्रह्मा से समसत चराचर भूत उत्पन्न हुए हैं’। ‘कल्प के आदि में बारंबार इस सृष्टि को मैं प्रकट करता हूँ (और अन्त में इसका संहार कर डालता हूँ)। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। जैसे आकाश से सूर्य का उदय हांता है और आकाश में ही वह असत होता है- ये उदय-अस्त के क्रम सदा चलते रहते हैं (उसी प्रकार मुण्से ही जगत् की उत्पत्ति होती है और मुझमें ही उसका लय होता है। यह सृष्टि और संहार का क्रम यों ही चला करता है)’।‘जैसे अमित तेजस्वी काल सूर्य के अदृश्य होने पर पुनः बलपूर्वक उसे दृष्टिपथ में ला देता है, उसी प्रकार मैं भी समसत प्राणियों के हित के लिये इस पृथ्वी को समुद्र के जल से बलपूर्वक ऊपर लाता हूँ’।
  
 
भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! तदननतर नारदजी ने भगवान् जनार्दन से पूछा - ‘महाप्रभो! किन-किन स्वरूपों में आपका दर्शन (और स्मरण) करना चाहिये ?’।।
 
भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! तदननतर नारदजी ने भगवान् जनार्दन से पूछा - ‘महाप्रभो! किन-किन स्वरूपों में आपका दर्शन (और स्मरण) करना चाहिये ?’।।

01:02, 27 मार्च 2018 के समय का अवतरण

एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (339) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्यायः: श्लोक 62-76 का हिन्दी अनुवाद


(वे वरदान इस प्रकार हैं- ) ‘ब्रह्मन्! तुम प्रत्येक कल्प के आदि में मेंरे पुत्ररूप से उत्पन्न होओगे। तुम्हें लोकाध्यक्ष का पद प्राप्त होगा। तुम्हारा पर्यायवाचीद नाम होगा, अहंकारकर्ता। तुम्हारी बाँधी हुई मर्यादा का कोई उल्लंघन नहीं करेगा’। ‘ब्रह्मन्! तुम वर चाहने वाले साधकों को वर देने में समर्थ होओगे। कठोर व्रत का पालन करने वाले महाभाग तपोधन! तुम देवताओं, असुरों, ऋषियों, पितरों तािा नाना प्रकार के प्राणियों के सदा ही उपासनीय होओगे’।।63-64।। ‘ब्रह्मन्! जब मैं देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये अवतार धारण करूँ, उन दिनों सदा तुम मुझपर शासन करना और पुत्र की भाँति मुझे प्रत्येक कार्य में नियुक्त करना’। ‘नारद! अमित तेजस्वी ब्रह्मा को ये तथा और भी बहुत से सुन्दर वर देकर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवृत्ति परायण हो गया’। ‘समस्त कर्मों से उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है; अतः जो निवृत्ति को प्राप्त हो गया है, वह सभी अंगों से सुखी होकर विचरण करे’। ‘सांख्यशास्त्र के सिद्धान्त का निश्चय करने वाले आचार्यगण मुण्े ही विद्या की सहायता से युक्त, सूर्यमण्डल में स्थित एवं समाहितचित्त कपिल कहते हैं’। ‘वेद में जिनकी स्तुति की गयी है, वे भगवान् हिरण्यगर्भ मेरे ही स्वरूप हैं। ब्रह्मन्! योगी लोग जिसमें रमण करते हैं, वह योगशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष विशेष ईश्वर भी मैं ही हूँ’। ‘इस समय मैं सनातन परमात्मा ही व्यक्तरूप धारण करके आकाश में स्थित हूँ। फिर एक सहस्र चतुर्यग व्यतीत होने पर मैें ही इस जगत् का संहार करूँगा’। ‘उस समय सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अपने में लीन करके मैं अकेला ही अपनी विद्या-शक्ति के साथ सूने संसार में विहार करूँगा’।‘तदनन्तर सृष्टि का समय आने पर फिर उस विद्याशक्ति के ही द्वारा संसार के सारे चराचर प्राणियों की सृष्टि करूँगा। मेरी जो चार मूर्तियाँ हैं, उनमें जरे चैथी वासुदेव मूर्ति है, उसने अविनाशी शेष उत्पन्न किया है’। ‘उस शेष को ही संकर्षण कहा गया है। संकर्षण ने प्रद्युम्न को प्रकट किया है और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का आविर्भाव हुआ है। वह सब मैं ही हूँ। बारंबार उत्पन्न होने वाला यह सृष्टि विस्तार मेरा ही है’। ‘मेरी अनिरुद्ध मूर्ति से ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं, जिनका प्राकट्य मेरे नाभिकमल से हुआ है। ब्रह्मा से समसत चराचर भूत उत्पन्न हुए हैं’। ‘कल्प के आदि में बारंबार इस सृष्टि को मैं प्रकट करता हूँ (और अन्त में इसका संहार कर डालता हूँ)। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। जैसे आकाश से सूर्य का उदय हांता है और आकाश में ही वह असत होता है- ये उदय-अस्त के क्रम सदा चलते रहते हैं (उसी प्रकार मुण्से ही जगत् की उत्पत्ति होती है और मुझमें ही उसका लय होता है। यह सृष्टि और संहार का क्रम यों ही चला करता है)’।‘जैसे अमित तेजस्वी काल सूर्य के अदृश्य होने पर पुनः बलपूर्वक उसे दृष्टिपथ में ला देता है, उसी प्रकार मैं भी समसत प्राणियों के हित के लिये इस पृथ्वी को समुद्र के जल से बलपूर्वक ऊपर लाता हूँ’।

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! तदननतर नारदजी ने भगवान् जनार्दन से पूछा - ‘महाप्रभो! किन-किन स्वरूपों में आपका दर्शन (और स्मरण) करना चाहिये ?’।। श्रीभगवान् बोले - महामुनि नारद! तुम मेरे अवतारों के नाम सुनो - मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलराम, श्रीकृष्ण तथा कल्कि - ये दस अवतार हैं।। पहले मैं ‘मत्स्य रूप से प्रकट होऊँगा और समस्त

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