महाभारत विराट पर्व अध्याय 16 भाग-3

षोडश (16) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व षोडश अध्यायः भाग-3 का हिन्दी अनुवाद


विराट की बड़ी रानी कोसलदेश की राजकुमारी सुरथा, जो श्वेत की जननी थी, उसकी मृत्यु हो जाने पर केकय नरेश ने अपनी कन्या सुदेष्णा का विवाह मत्स्यराज विराट के साथ प्रसन्नतापूर्वक कर दिया। सुदेष्णा को महारानी के रूप में पाकर राजा विराट का दुख दूर हो गया।

जनमेजय! केकयकुमारी रानी सुदेष्णा ने राजा विराट से अपने कुल की वृद्धि के लिये उत्तर और उत्तरा नामक दो संतानों को उत्पन्न किया। राजन्! कीचक अपनी मौसी की बेटी सती-साध्वी सुदेष्णा की प्रेमपूर्वक परिचर्या करता हुआ विराट के यहाँ सुखपूर्वक रहने लगा। उसके सभी पराक्रमी भाई कीचक के ही प्रेमी भक्त थे; अतः वे भी विराट के ही बल और कोष को बढ़ाते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने लगे। राजन्! कालेय नामक दैत्य ही, जो प्रायः इस भूमण्डल में विख्यात थे, कीचकों के रूप में उत्पन्न हुए थे। कालेयों में बाण सबसे बड़ा था। वही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न, भयंकर पराक्रमी और महाबली कीचक हुआ, जो धर्म की मर्यादा तोड़ने और मनुष्यों के भय को बढ़ाने वाला था। उस बलोन्मत्त कीचक की सहायता पाकर, जैसे इन्द्र दानवों पर सहायता पाते थे, उसी प्रकार राजा विराट ने भी समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त की।

मेखल, त्रिगर्त, दशार्ण, कशेरुक, मालव, यवन, पुलिन्द, काशी, कोसल, अंग, वंग, कलिंग, तंगण, परतंगण, मलद, निषध, तुण्डिकेर, कोंकण, करद, निषिद्ध, शिव, दुश्छिल्लिक तथा अन्य नाना जनपदों के स्वामी अनेक शूरवीर नरेश रणभूमि में कीचक से पराजित हो दसों दिशाओं में भाग गये। ऐसे पराक्रमसम्पन्न कीचक को, जो संग्राम में दस हजार हाथियो का बल रचाता था, राजा विराट ने अपना सेनापति बना लिया। विराट के दस भाई ऐसे थे, जो दशरथनन्दन श्रीराम के समान शक्तिशाली समझे जाते थे। वे भी इन प्रबलतर कीचक बन्धुओं का अनुसरण करने लगे। ऐसे बल सम्पन्न कीचक, जो राजा विराट के साले लगते थे, शौर्य में अपना सानी नहीं रखते थे। वे महामना विराट के बड़े हितैषी थे।

जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुमसे कीचक के पराक्रम की सारी बातें बता दीं। अब यह सुन लो कि द्रौपदी ने उसे शाप क्यों नहीं दिया? क्रोध से तपस्या नष्ट होती है, इसीलिये ऋषि भी सहसा किसी को शाप नहीं देते हैं। द्रौपदी इस बात को अच्छी तरह जानती थी; इसीलिये उसने उसे शाप नहीं दिया। क्षमा धर्म है, क्षमा दान है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है, क्षमा सत्य है, क्षमा शील है, क्षमा कीर्ति है, क्षमा सबसे उत्कृष्ट तत्त्व है, क्षमा पुण्य है, क्षमा तीर्थ है, क्षमा सब कुछ है; ऐसा श्रुति का कथन है। यह लोक क्षमावानों का ही है। परलोक भी क्षमावानों का ही है। द्रौपदी यह सब कुछ जानती थी, इसलिये उसने क्षमा का ही आश्रय लिया। भरतनन्दन! क्षमाशील एवं धर्मात्मा पतियों का मत जानकर विशाल नेत्रों वाली सती साध्वी द्रौपदी ने समर्थ होते हुए भी कीचक को शाप नहीं दिया। समस्त पाण्डव भी द्रौपदी की दुरवस्था देखकर दु:खी हो समय की प्रतीक्षा करते हुए क्रोधाग्नि में जलते रहे। महाबाहु भीमसेन तो कीचक को तत्काल मार डालने के लिये उद्यत थे; परंतु जैसे वेला (तट की सीमा) महासागर के वेग को रोके रखती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। वे मन में क्रोध को रोककर दिन-रात लंबी साँसें खींचते रहते थे। उस दिन पाकशाला में जाकर वे रात में बड़े कष्ट से सोये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी तिरस्कार सम्बन्धी सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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