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दिनेश चन्द (वार्ता | योगदान) |
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देखो, [[ब्राह्मण]] लोग कुपित होकर जिसके पराभव का चिन्तन करने लगते हैं, उसका तीनों लोकों में कोई रक्षक नहीं होता। जो ब्राह्मणों की निन्दा करता है और उनका विनाश चाहता है, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार अवश्य ही पतन हो जाता है। तुम लोग यही बैठे–बैठे लुटेरे पन का जो फल है, उसे पाने की अभिलाषा रखो। जो-जो व्यापारी हमें स्वेच्छा से धन नहीं देंगे, उन्हीं–उन्हीं पर तुम दल बाँधकर आक्रमण करोगे। दण्ड का विधान दुष्टों के दमन के लिये है , अपना धन बढा़नें के लिए नहीं। जो शिष्ट पुरुषों को सताते हैं, उनका वध ही उनके लिये दण्ड माना गया है। जो लोग राष्ट्र को हानि पहुँचाकर अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करते हैं, वे मुर्दों में पड़े हुए कीड़ों के समान उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। जो दस्युजाति में उत्पन्न होकर भी धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे लुटेरे होने पर भी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं (ये सब बातें तुम्हें स्वीकार हो तो मैं तुम्हारा सरदार बन सकता हूँ )। | देखो, [[ब्राह्मण]] लोग कुपित होकर जिसके पराभव का चिन्तन करने लगते हैं, उसका तीनों लोकों में कोई रक्षक नहीं होता। जो ब्राह्मणों की निन्दा करता है और उनका विनाश चाहता है, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार अवश्य ही पतन हो जाता है। तुम लोग यही बैठे–बैठे लुटेरे पन का जो फल है, उसे पाने की अभिलाषा रखो। जो-जो व्यापारी हमें स्वेच्छा से धन नहीं देंगे, उन्हीं–उन्हीं पर तुम दल बाँधकर आक्रमण करोगे। दण्ड का विधान दुष्टों के दमन के लिये है , अपना धन बढा़नें के लिए नहीं। जो शिष्ट पुरुषों को सताते हैं, उनका वध ही उनके लिये दण्ड माना गया है। जो लोग राष्ट्र को हानि पहुँचाकर अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करते हैं, वे मुर्दों में पड़े हुए कीड़ों के समान उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। जो दस्युजाति में उत्पन्न होकर भी धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे लुटेरे होने पर भी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं (ये सब बातें तुम्हें स्वीकार हो तो मैं तुम्हारा सरदार बन सकता हूँ )। | ||
− | [[भीष्म|भीष्मजी]] कहते हैं- राजन्! यह सुनकर उन दस्युओं ने कायव्य की सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया। इससे उन सभी की उन्नति हुई और वे पाप-कर्मों से हट गये। कायव्य ने उस पुण्यकर्म से बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली; क्योंकि उसने साधु पुरुषों का कल्याण करते हुए डाकुओं को पाप से बचा लिया था। जो प्रतिदिन कायव्य के इस चरित्र का चिन्तन करता है, उसे वनवासी प्राणियों से किंचिंत मात्र भी भय नहीं प्राप्त होता। भारत! उसे सम्पूर्ण भूतों से भी भय नहीं होता। राजन्! किसी दुष्टात्मा से भी उसको डर | + | [[भीष्म|भीष्मजी]] कहते हैं- राजन्! यह सुनकर उन दस्युओं ने कायव्य की सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया। इससे उन सभी की उन्नति हुई और वे पाप-कर्मों से हट गये। कायव्य ने उस पुण्यकर्म से बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली; क्योंकि उसने साधु पुरुषों का कल्याण करते हुए डाकुओं को पाप से बचा लिया था। जो प्रतिदिन कायव्य के इस चरित्र का चिन्तन करता है, उसे वनवासी प्राणियों से किंचिंत मात्र भी भय नहीं प्राप्त होता। भारत! उसे सम्पूर्ण भूतों से भी भय नहीं होता। राजन्! किसी दुष्टात्मा से भी उसको डर नहीं लगता। वह तो वन का अधिपति हो जाता है। |
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कायव्यका चरित्रविषयक एक सौ पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कायव्यका चरित्रविषयक एक सौ पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।</div> |
16:02, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! यह सुनकर उन दस्युओं ने कायव्य की सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया। इससे उन सभी की उन्नति हुई और वे पाप-कर्मों से हट गये। कायव्य ने उस पुण्यकर्म से बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली; क्योंकि उसने साधु पुरुषों का कल्याण करते हुए डाकुओं को पाप से बचा लिया था। जो प्रतिदिन कायव्य के इस चरित्र का चिन्तन करता है, उसे वनवासी प्राणियों से किंचिंत मात्र भी भय नहीं प्राप्त होता। भारत! उसे सम्पूर्ण भूतों से भी भय नहीं होता। राजन्! किसी दुष्टात्मा से भी उसको डर नहीं लगता। वह तो वन का अधिपति हो जाता है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व में कायव्यका चरित्रविषयक एक सौ पैंतीसवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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