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+ | वैशम्पायन जी कहते हैं- [[जनमेजय]]! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा पुरुषों में महान् वीर [[अर्जुन]] इस प्रकार कहकर चुप हो गये। तब राजा [[युधिष्ठिर]] पुनः दूसरे भाई से बोले। | ||
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+ | युधिष्ठिर ने पूछा- [[नकुल]]! तुम राजा [[विराट]] के राज्य में कौन-सा कार्य करते हुए निवास करोगे? वह कार्य बताओ। तात! तुम तो शूरवीर होने के साथ ही अत्यन्त सुकुमार, परम दर्शनीय और सर्वथा सुख भोगने के योग्य हो। | ||
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+ | नकुल बोले- राजन्! मैं राजा विराट के यहाँ अश्वबन्ध (घोड़ों को वश में करने वाला सवार) होकर रहूँगा। मैं अश्व-विज्ञान से सम्पन्न और धोड़ों की रक्षा के कार्य में कुशल हूँ। मैं राजसभा में [[ग्रन्थिक]] नाम से अपना परिचय दूँगा। घोड़ों की देखभाल का काम मुझे अत्यन्त प्रिय है। उन्हें भाँति-भाँति की चालें सिखाने और उनकी चिकित्सा करने में भी मैं निपुण हूँ। कुरुराज! आपकी ही भाँति मुझे भी घोड़े सदैव प्रिय रहे हैं।<ref>[[नकुल]] ने अपना नाम ग्रंथिक बताया और अपने को अश्वों का अधिकारी कहा है। ग्रंथिक का अर्थ है आयुर्वेद तथा अघ्वर्युविद्या सम्बंधी ग्रंथों को जानने वाला। श्रुति में अश्विनीकुमारों को देवताओं का वैद्य तथा अध्वर्यु कहा गया है। 'अश्विनौ वै दवानां भिषजावश्विनावघ्वर्यू'। नकुल अश्विनीकुमार के पुत्र हैं, अत: उनका अपने को ग्रंथिक कहना उपयुक्त ही है। 'नास्ति श्वो येषां ते अश्वा:' जिनके कल तक जीवित रहने की आशा न हो, वे अश्व हैं-इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीवन की आशा छोड़कर युद्ध में डटे रहने वाले वीरों को अश्व कहते हैं। नकुल उनके अधिकारी अर्थात वीरों में प्रधान हैं। अत: उनका यह परिचय यथार्थ ही है।</ref> [[विराट नगर]] में जो लोग मुझसे पूछेंगे, उन्हें मैं इस प्रकार उत्तर दूँगा- ‘ताता! पहले पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने मुझे अश्वों का अध्यक्ष बनाकर रक्खा था।’ महीपते! मैं जिस प्रकार वहाँ विहार करूँगा, वह सब मेंने आपको बता दिया। राजा विराट के नगर में अपने को छिपाये रखकर ही मैं सर्वत्र विचरूँगा। | ||
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+ | [[युधिष्ठिर]] ने [[सहदेव]] से पूछा- भैया सहदेव! तुम राजा विराट के समीप कैसे जाओगे? उनके यहाँ क्या काम करते हुए गुप्त रूप से निवास करोगे? | ||
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+ | सहदेव ने कहा- महाराज! मैं राजा विराट के यहाँ गौओं की गिनती, जाँच-पड़ताल करने वाला गोशालाध्यक्ष होकर रहूँगा। मैं गौओं को नियन्त्रण में रखने और दुहने का काम अच्छी तरह जानता हूँ। उन्हें गिनने और उनकी परख, पहचान के काम में भी कुशल हूँ। मैं वहाँ [[तन्तिपाल]] नाम से प्रसिद्ध होऊँगा। इसी नाम से मुझे सब लोग जानेगे। मैं बड़ी चतुराई से अपने को छिपाये रखकर वहाँ सब ओर विचरूँगा; अतः मेरे विषय में आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। राजन्! मेरे द्वारा रक्षित होकर राजा विराट के पशु तथा गौएँ नीरोग, संख्या में अधिक, हृष्ट-पुष्ट, अधिक दूध देने वाली, बहुत संतानों वाली, सत्त्वयुक्त, अच्छी तरह सम्हाल होने से रोगरूप-पाप से रहित, चोरों के भय से मुक्त तथा सदा व्याधि एवं बाघ आदि के भय से रहित होंगे ही। | ||
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+ | भूपाल! पहले आपने मुझे सदा गौओं की देखभाल में नियुक्त किया है। इस कार्य में मैं कितना दक्ष हूँ, यह सब आपको विदित ही है। महीपते! गौओं के जो लक्षण ओर चरित्र मंगलकारक होते हैं, वे सब मुझे भलीभाँति मालूम हैं। उनके विषय में और भी बहुत-सी बातें में जानता हूँ। राजन्! इनके सिवा मैं ऐसे प्रशंसनीय लक्षणों वाले साँड़ों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र को सूंघ लेने मात्र से वन्ध्या स्त्री भी गर्भवती हो जाती है। इस प्रकार में गौओं की सेवा करूँगा। इस कार्य में मुझे सदा से प्रेम रहा है। वहाँ मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्य से राजा विराट को संतुष्ट कर लूँगा। | ||
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15:26, 25 मार्च 2018 का अवतरण
तृतीय (3) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा पुरुषों में महान् वीर अर्जुन इस प्रकार कहकर चुप हो गये। तब राजा युधिष्ठिर पुनः दूसरे भाई से बोले। युधिष्ठिर ने पूछा- नकुल! तुम राजा विराट के राज्य में कौन-सा कार्य करते हुए निवास करोगे? वह कार्य बताओ। तात! तुम तो शूरवीर होने के साथ ही अत्यन्त सुकुमार, परम दर्शनीय और सर्वथा सुख भोगने के योग्य हो। नकुल बोले- राजन्! मैं राजा विराट के यहाँ अश्वबन्ध (घोड़ों को वश में करने वाला सवार) होकर रहूँगा। मैं अश्व-विज्ञान से सम्पन्न और धोड़ों की रक्षा के कार्य में कुशल हूँ। मैं राजसभा में ग्रन्थिक नाम से अपना परिचय दूँगा। घोड़ों की देखभाल का काम मुझे अत्यन्त प्रिय है। उन्हें भाँति-भाँति की चालें सिखाने और उनकी चिकित्सा करने में भी मैं निपुण हूँ। कुरुराज! आपकी ही भाँति मुझे भी घोड़े सदैव प्रिय रहे हैं।[1] विराट नगर में जो लोग मुझसे पूछेंगे, उन्हें मैं इस प्रकार उत्तर दूँगा- ‘ताता! पहले पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने मुझे अश्वों का अध्यक्ष बनाकर रक्खा था।’ महीपते! मैं जिस प्रकार वहाँ विहार करूँगा, वह सब मेंने आपको बता दिया। राजा विराट के नगर में अपने को छिपाये रखकर ही मैं सर्वत्र विचरूँगा। युधिष्ठिर ने सहदेव से पूछा- भैया सहदेव! तुम राजा विराट के समीप कैसे जाओगे? उनके यहाँ क्या काम करते हुए गुप्त रूप से निवास करोगे? सहदेव ने कहा- महाराज! मैं राजा विराट के यहाँ गौओं की गिनती, जाँच-पड़ताल करने वाला गोशालाध्यक्ष होकर रहूँगा। मैं गौओं को नियन्त्रण में रखने और दुहने का काम अच्छी तरह जानता हूँ। उन्हें गिनने और उनकी परख, पहचान के काम में भी कुशल हूँ। मैं वहाँ तन्तिपाल नाम से प्रसिद्ध होऊँगा। इसी नाम से मुझे सब लोग जानेगे। मैं बड़ी चतुराई से अपने को छिपाये रखकर वहाँ सब ओर विचरूँगा; अतः मेरे विषय में आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। राजन्! मेरे द्वारा रक्षित होकर राजा विराट के पशु तथा गौएँ नीरोग, संख्या में अधिक, हृष्ट-पुष्ट, अधिक दूध देने वाली, बहुत संतानों वाली, सत्त्वयुक्त, अच्छी तरह सम्हाल होने से रोगरूप-पाप से रहित, चोरों के भय से मुक्त तथा सदा व्याधि एवं बाघ आदि के भय से रहित होंगे ही। भूपाल! पहले आपने मुझे सदा गौओं की देखभाल में नियुक्त किया है। इस कार्य में मैं कितना दक्ष हूँ, यह सब आपको विदित ही है। महीपते! गौओं के जो लक्षण ओर चरित्र मंगलकारक होते हैं, वे सब मुझे भलीभाँति मालूम हैं। उनके विषय में और भी बहुत-सी बातें में जानता हूँ। राजन्! इनके सिवा मैं ऐसे प्रशंसनीय लक्षणों वाले साँड़ों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र को सूंघ लेने मात्र से वन्ध्या स्त्री भी गर्भवती हो जाती है। इस प्रकार में गौओं की सेवा करूँगा। इस कार्य में मुझे सदा से प्रेम रहा है। वहाँ मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्य से राजा विराट को संतुष्ट कर लूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नकुल ने अपना नाम ग्रंथिक बताया और अपने को अश्वों का अधिकारी कहा है। ग्रंथिक का अर्थ है आयुर्वेद तथा अघ्वर्युविद्या सम्बंधी ग्रंथों को जानने वाला। श्रुति में अश्विनीकुमारों को देवताओं का वैद्य तथा अध्वर्यु कहा गया है। 'अश्विनौ वै दवानां भिषजावश्विनावघ्वर्यू'। नकुल अश्विनीकुमार के पुत्र हैं, अत: उनका अपने को ग्रंथिक कहना उपयुक्त ही है। 'नास्ति श्वो येषां ते अश्वा:' जिनके कल तक जीवित रहने की आशा न हो, वे अश्व हैं-इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीवन की आशा छोड़कर युद्ध में डटे रहने वाले वीरों को अश्व कहते हैं। नकुल उनके अधिकारी अर्थात वीरों में प्रधान हैं। अत: उनका यह परिचय यथार्थ ही है।
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