पंचदश (15) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
महाभारत: स्त्री पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद
रानी जी! यदि मैं उस प्रतिज्ञा को पूर्ण न करता तो सदा के लिये क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता, इसलिये मैंने यह काम किया था। माता गान्धारी! आपको मुझमें दोष की आशंका नहीं करनी चाहिये। पहले जब हम लोगों ने कोई अपराध नहीं किया था, उस समय हम पर अत्याचार करने वाले अपने पुत्रों-को तो आपने रोका नही; फिर इस समय आप क्यों मुझ पर दोषारोपण करती है? गान्धारी बोलीं- बेटा! तुम अपराजित वीर हो। तुमने इन बूढ़े महाराज के सौ पुत्रों को मारते समय किसी एक को भी, जिसने बहुत थोड़ा अपराध किया था, क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया? तात! हम दोनों बूढ़े हुए। हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया। ऐसी दशा में हमारी एक ही संतान को हम दो अन्धों के लिये एक ही लाठी के सहारे को तुमने क्यों नहीं जीवित छोड़ दिया? तात! तुम मेरे सारे पुत्रों के लिये यमराज बन गये। यदि तुम धर्म का आचरण करते और मेरा एक पुत्र भी शेष रह जाता तो मुझे इतना दु:ख नहीं होता। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! भीमसेन से ऐसा कहकर अपने पुत्रों और पौत्रों के वध से पीड़ित हुई गान्धारी ने कुपित होकर पूछा- ‘कहाँ है वह राज युधिष्ठिर?’ यह सुनकर महाराज युधिष्ठिर काँपते हुए हाथ जोड़े उनके सामने आये और बड़ी मीठी वाणी में बोले- ‘देवि! आपके पुत्रों का संहार करने वाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर मैं हूँ। पृथ्वी भर के राजाओं का नाश कराने में मैं ही हेतु हूँ, इसलिये शाप के योग्य हूँ। आप मुझे शाप दे दीजिये। ‘मैं अपने सुह्रदों का द्रोही और अविवेकी हूँ। वैसे-वैसे श्रेष्ठ सुह्रदों का वध करके अब मुझे जीवन, राज्य अथवा धन से कोई प्रयोजन नहीं है’। जब निकट आकर डरे हुए राजा युधिष्ठर ने, ऐसी बातें कहीं, तब गान्धारी देवी जोर-जोर से साँस खींचती हुई सिसकने लगीं। वे मुँह से कुछ बोल न सकीं। राजा युधिष्ठिर शरीर को झुकाकर गान्धारी के चरणों पर गिर जाना चाहते थे। इतने ही में धर्म को जानने वाली दूरदर्शिनी देवी गान्धारी ने पट्टी के भीतर से ही राजा युधिष्ठिर के पैरों की अगुलियों के अग्रभाग देख लिये। इतने ही से राजा-के नख काले पड़ गये। इसके पहले उनके नख बड़े ही सुन्दर और दर्शनीय थे। उनकी यह अवस्था देख अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के पीछे जाकर छिप गये। भारत! उन्हें इस प्रकार इधर-उधर छिपने की चेष्टा करते देख गान्धारी का क्रोध उतर गया और उन्होंने उन सबको स्नेहमयी माता के समान सान्त्वना दी। फिर उनकी आज्ञा ले चौड़ी छाती वाले सभी पाण्डव एक साथ वीर जननी माता कुन्ती के पास गये। कुन्तीदेवी दीर्घकाल के बाद अपने पुत्रों को देखकर उनके कष्टों का स्मरण करके करुणा में डूब गयीं और अंचल से मुँह ढककर आँसू बहाने लगीं। पुत्रों सहित आँसू बहाकर उन्होंने उनके शरीरों पर बारबार दृष्टिपात किया। वे सभी अस्त्र-शस्त्रों की चोट से घायल हो रहे थे। बारी-बारी से पुत्रों के शरीर पर बारंबार हाथ फेरती हुई कुन्ती दु:ख से आतुर हो उस द्रौपदी के लिय शोक करने लगी, जिसके सभी पुत्र मारे गये थे। इतने में ही उन्होंने देखा कि द्रौपदी पास ही पृथ्वी पर गिरकर रो रही है। द्रौपदी बोली- आर्ये! अभिमन्यु सहित वे आपके सभी पौत्र कहाँ चले गये? वे दीर्घकाल के बाद आयी हुई आज आप तपस्विनी देवी को देखकर आपके निकट क्यों नहीं आ रहे हैं? अपने पुत्रों से हीन होकर अब इस राज्य से हमें क्या कार्य है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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