महाभारत सभा पर्व अध्याय 61 श्लोक 14-31

एकषष्टितम (61) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 14-31 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर पुन: शठता का आश्रय लेने वाले शकुनि ने अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा- 'लो, यह दाँव भी मैंने जी लिया'।

युधिष्ठिर ने कहा- सुबलकुमार! मेरे यहाँ एक हजार मतवाले हा‍थी हैं, जिनके बाँधने के रस्‍से सुवर्णमय हैं। वे सदा आभूषणों से विभूषित रहते हैं। उनके कपोल और मस्‍तक आदि अगों पर कमल के चिह्न बने हुए हैं। उनके गले में सोने के हार सुशोभित होते हैं। वे अच्‍छी तरह वश में किये हुए हैं और राजाओं की सवारी के काम में आते हैं। युद्ध में वे सब प्रकार के शब्‍द सहन करने वाले हैं। उनके दाँत हलदण्‍ड के समान लंबे हैं और शरीर विशाल है। उनमें से प्रत्‍येक के आठ-आठ ह‍थिनियाँ हैं। उनकी कान्ति नूतन मेघों की घटा के समान है। वे सबके-सब बड़े-बड़े नगरों को भी नाश कर देने की शक्ति रखते हैं। राजन्। यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसी बातें कहते हुए कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर से शकुनि ने हँसकर कहा- 'इस दाँव को भी मैंने ही जीता'।

युधिष्ठिर ने कहा- मेरे पास उतने ही अर्थात् एक हजार रथ हैं, जिनकी ध्‍वजाओं में सोने के डंडे लगे हैं। उन रथों पर पताकाएँ फहराती रहती हैं। उनमें सधे हुए घोड़े जोते जाते हैं और विचित्र युद्ध करने वाले रथी उनमें बैठते हैं। उन रथियों में से प्रत्‍येक को अधिक-से-अधिक एक सहस्त्र स्‍वर्णमुद्राएँ तक वेतन में मिलती हैं। वे युद्ध कर रहे हों या न कर रहे हों, प्रत्‍येक मास में उन्‍हें यह वेतन प्राप्‍त होता रहता है। राजन्! यह मेरा धन है, इसे दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर वैरी दुरात्‍मा शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा- 'लो, यह भी जीत लिया'।

युधिष्ठिर ने कहा- मेरे यहाँ तीतर पक्षी के समान विचित्र वर्ण वाले गन्‍धर्व देश के घोडे़ है, जो सोने के हार से विभूषित हैं। शत्रुदमन चित्ररथ गंधर्व ने युद्ध में पराजित एवं तिरस्‍कृत होने के पश्‍चात संतुष्‍ट हो गाण्‍डीवधारी अर्जुन को प्रेमपूर्वक वे घोड़े भेंट किये थे। राजन्! यह मेरा धन है जिस दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्‍चय करके युधिष्ठिर से कहा- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'।

युधिष्ठिर ने कहा- मेरे पास दस हजार श्रेष्‍ठ रथ और छकडे़ हैं। जिनमें छोटे-बडे़ वाहन सदा जुटे ही रहते हैं। इसी प्रकार प्रत्‍येक वर्ण के हजारों चुन हुए योद्धा मेरे यहाँ एक साथ रहते हैं। वे सब-के-सब वीरोचित पराक्रम से सम्‍पन्‍न एवं शूरवीर हैं। उनकी संख्‍या साठ हजार हैं। वे दूध पीते और शालि के चावल का भात खाकर रहते हैं। उन सबकी छाती बहुत चौड़ी है। राजन्! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शठता के उपासक शकुनि ने पुन: युधिष्ठिर से पूर्ण निश्‍चय के साथ कहा-'यह दाँव भी मैंने ही जीता है'।

युधिष्ठिर ने कहा- मेरे पास ताँबे और लोहे की चार सौ निधियाँ यानि खजाने से भरी हुई पेटियाँ हैं। प्रत्‍येक में पाँच-पाँच द्रोण विशुद्ध सोना भरा हुआ है, यह सारा सोना तपाकर शुद्ध किया हुआ हैं, उसकी कीमत आँकी नहीं जा सकती। भारत! यह मेरा धन है, जिसे दाँव पर रखकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा सुनकर छल का आश्रय लेने वाले शकुनि ने पूर्ववत् पूर्ण निश्‍चय के साथ युधिष्ठिर से कहा- 'यह दाँव भी मैंने ही जीता'।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्यूतक्रीड़ाविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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