महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 33-48

एकोनपन्चाशत्तम (49) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकोनपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 33-48 का हिन्दी अनुवाद


महाराज! वहाँ यज्ञ देखने के लिये आये हुए बहुत से राजाओं द्वारा भरी हुई यज्ञमण्डप की बैठक ताराओं से व्याप्त हुए निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी। जनेश्वर! बुद्धिमान पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के उस यज्ञ में भूपालगण सब रत्नों की भेंट लेकर आये थे। राजा लोग वैश्यों की भाँति ब्राह्मणों को भोजन परोसते थे। राजा युधिष्ठिर के पास जो लक्ष्मी है, वह देवराज इन्द्र, यम, वरुण अथवा यक्षराज कुबेर के पास भी नहीं होगी। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की उस उत्कृष्ट लक्ष्मी को देखकर मेरे हृदय में जलन हो गयी, अत: मुझे क्षणभर भी शान्ति नहीं मिलती। पाण्डवों का ऐश्वर्य यदि मुझे नहीं प्राप्त हुआ तो मेरे मन को शान्ति नहीं मिलेंगी। या तो मैं बाणों द्वारा रण भूमि में उपस्थित होकर शत्रुओं की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त करूँगा या शत्रुओं द्वारा मारा जाकर संग्राम में सदा के लिये सो जाऊँगा। तरंतप! ऐसी स्थिति में मेरे इस जीवन से क्या लाभ? पाण्डव दिनों दिन बढ़ रहे हैं और हमारी उन्नति रुक गयी है।

शकुनि ने दुर्योधन से पुन: कहा- सत्यपराक्रमी दुर्योधन! तुमने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के यहाँ जो अनुपम लक्ष्मी देखी है, उसकी प्राप्ति का उपाय मुझ सेे सुनो। भारत! मैं इस भूमण्डल में द्यूतविद्या का विशेष जानकार हूँ, द्यूतक्रीड़ा का मर्म जानता हूँ, दाव लगाने का भी मुझे ज्ञान है तथा पासे फेंकने की कला का भी मैं विशेषज्ञ हूँ। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जुआ खेलना बहुत प्रिय है, परंतु वे उसे खेलना जानते नहीं हैं। द्यूत अथवा युद्ध किसी भी उद्देश्य से यदि उन्हें बुलाया जाय, तो वे अवश्य पधारेंगे। प्रभो! मैं छल करके युधिष्ठिर को निश्चय ही जीत लूँगा और उनकी उस दिव्य समृद्धि को यहाँ माँगा लूँगा, अत: तुम उन्हें बुलाओ।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! शकुनि के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने तुरंत ही धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहा- ‘राजन्! ये अक्षयविद्या का मर्म जानने वाले हैं और जूए के द्वारा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी का अपहरण कर लेने का उत्साह रखते हैं, अत: इसके लिये इन्हें आज्ञा दीजिये’।

धृतराष्ट्र बोल- महाबुद्धिमान विदुर मेरे मंत्री हैं, जिनके आदेश के अनुसार मैं चलता हूँ। उनसे मिलकर विचार करने के पश्चात मैं यह समझ सकूँगा कि इस कार्य के सम्बन्धों में क्या निश्चय किया जा? विदुर दूरदर्शी हैं, वे धर्म को सामने रखकर दोनों पक्षों के लिये उचित और परम हित की बात सोचकर उसके अनुकूल ही कार्य का निश्च बातयेंगे।

दुर्योधन ने कहा- विदुर जब आप से मिलेंगे, तब अवश्य ही आपको इस कार्य से निवृत्त कर देंगे। राजेन्द्र! यदि आपने इस कार्य से मुँह मोड़ लिया तो मैं नि:संदेह प्राण त्याग दूँगा। राजन्! मेरी मृत्यु हो जाने पर आप विदुर के साथ सुख से रहियेगा और सारी पृथ्वी का राज्य भोगियेगा। मेरे जीवित रहने से आप क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे?

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अपने पुत्र का यह प्रमेपूर्ण आर्तवचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र दुर्योधन के मत में आ गये और सेवकों से इस प्रकार बोले- ‘बहुत से शिल्पी लगकर एक परम सुन्दर दर्शनीय एवं विशाल सभा भवन का शीघ्र निर्माण करें। उसमें सौ दरवाजे हों और एक हजार खंभे लगे हुए हों।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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