महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 51-68

सप्तदश (17) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 51-68 का हिन्दी अनुवाद

जैसे कार्तिकेय की शक्ति से आहत हुआ महापर्वत क्रौंच गेरूमिश्रित झरनों के जल से भीग गया था, उसी प्रकार नाक, आँख, कान और मुख से निकले तथा घावों से बहते हुए खून से शल्य का सारा शरीर नहा गया।

कुरूनन्दन! भीमसेन ने जिन के कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला था, वे इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान विशालकाय राजा शल्य दोनों बाहें फैलाकर वज्र के मारे हुए पर्वत-शिखर की भाँति रथ से पृथ्वी पर गिर पड़े। मद्रराज शल्य धर्मराज युधिष्ठिर के सामने ही अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर ऊँचे इन्द्रध्वज के समान धराशायी हो गये। उनके सारे अंग विदीर्ण हो गये थे तथा वे खून से नहा उठे थे। जैसे प्रियतमा कामिनी अपने वक्षःस्थल पर गिरने की इच्छा वाले प्रियतम का प्रेमपूर्वक स्वागत करती है, उसी प्रकार पृथ्वी ने अपने ऊपर गिरते हुए नरश्रेष्ठ शल्य को मानों प्रेमपूर्वक आगे बढ़कर अपनाया था। प्रियतमा कान्ता की भाँति इस वसुधा का चिरकाल तक उपभोग करने के पश्चात राजा शल्य मानों अपने सम्पूर्ण अंगों से उसका आलिंगन करके सो गये थे। उस धर्मानुकूल युद्ध में धर्मात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर के द्वारा मारे गये राजा शल्य यज्ञ में विधिपूर्वक घी की आहुति पाकर शांत होने वाली स्विष्ट कृत अग्नि के समान सर्वथा शांत हो गये। शक्ति ने राजा शल्य के वक्षःस्थल को विदीर्ण कर डाला था, उनके आयुध तथा ध्वज छिन्न-भिन्न हो बिखरे पड़े थे और वे सदा के लिये शांत हो गये थे तो भी मद्रराज को लक्ष्मी (शोभा या कांति) छोड़ नहीं रही थी। तदनन्तर युधिष्ठिर ने इन्द्रधनुष के समान कांतिमान दूसरा धनुष लेकर सर्पों का संहार करने वाले गरुड़ की भाँति युद्धस्थल में तीखे भल्लों द्वारा शत्रुओं के शरीरों का नाश करते हुए क्षणभर में उन सबका विध्वंस कर दिया।

राजन! युधिष्ठिर के बाणसमूहों से आच्छादित हुए आपके सैनिकों ने आँखें मीच लीं और आपस में ही एक-दूसरे को घायल करके वे अत्यन्त पीड़ित हो गये। उस समय शरीरों से रक्त की धारा बहाते हुए वे अपने अस्त्र-शस्त्र और जीवन से भी हाथ धो बैठे। तदनन्तर, मद्रराज शल्य के मारे जाने पर उनका छोटा भाई, जो अभी नवयुवक था और सभी गुणों में अपने भाई की ही समानता करता था, रथ पर आरूढ़ हो पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पर चढ़ आया। मारे गये भाई का प्रतिशोध लेेने की इच्छा से वह रणदुर्भद नरश्रेष्ठ वीर बड़ी उतावली के साथ उन्हें बहुत-से नाराचों द्वारा घायल करने लगा। तब धर्मराज ने उसे शीघ्रतापूर्वक छः बाणों से बींध डाला तथा दो क्षुरों से उसके धनुष और ध्वज को काट दिया।

तत्पश्चात एक चमकीले, सुदृढ़ और तीखे भल्ल से सामने खडे़ हुए उस राजकुमार के मस्तक को काट गिराया। पुण्य समाप्त होने पर स्वर्ग से भ्रष्ट हो नीचे गिरने वाले जीव की भाँति उनका वह कुण्डलसहित मस्तक रथ से भूतल पर गिरता देखा गया। फिर खून से लथपथ हुआ उसका शरीर भी, जिसका सिर काट लिया गया था, रथ से नीचे गिर पड़ा। उसे देखकर आपकी सेना में भगदड़ मच गयी। मद्रनरेश का वह भाई विचित्र कवच से सुशोभित था, उसके मारे जाने पर समस्त कौरव हाहाकार करते हुए भाग चले। शल्य के भाई को मारा गया देख धूलिधूसरित हुए आप के सारे सैनिक पाण्डुपुत्र के भय से जीवन की आशा छोड़कर अत्यन्त त्रस्त हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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