महाभारत विराट पर्व अध्याय 45 श्लोक 12-18

पंचचत्वारिंश (45) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

Prev.png

महाभारत: विराट पर्व: पंचचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद


वह चिन्ता इस प्रकार है - आपका एक-एक अवयव तथा रूप सब प्रकार से उपयुक्त है। आप लक्षणों द्वारा भी अलौकिक सूचित हो रहे हैं। ऐसी दशा में भी किस कर्म के परिणाम से आपको यह नपुंसकता प्राप्त हुई है ?। मैं तो नपुंसक वेश में विचरने वाले आपको शूलपाणि भगवान् शंकर का स्वरूप मानता हूँ अथवा गन्धर्वराज के समान या साक्षात् देवराज इन्द्र समझता हूँ।

अर्जुन बोले - महाबाहो! उर्वशी के शाप से मुझे यह नपुंसक भाव प्राप्त हुआ है। पूर्व काल में मैं अपने बड़े भाई की आज्ञा से देवलोक में गया था। वहाँ सुधर्मा नामक सभा में मैंने उस समय उर्वशी अप्सरा को देखा। वह परम सुन्दर रूप धारण करके वज्रधारी इन्द्र के समीप नृत्य कर रही थी। मेरे वंश की मूल हेतु ( जननी ) होने के कारण होने के कारण मैं उसे अपलक नेत्रों से देखने लगा। तब वह रात में सोते समय रमण की इच्छा से मेरे पास आयी, परंतु मैंने उसे ( प्रणाम करके उसकी इच्छा पूर्ति न करके ) उसका माता के समान सत्कार किया। तब उसने कुपित होकर मुण् शाप दे दिया - ‘तुम नपुंसक हो जाओ।’ तब इन्द्र ने वह शाप सुनकर मुझसे कहा - ‘पार्थ! तुम नपुंसक होने से डरो मत। यह तुम्हारे लिये अज्ञातवास के समय उपकारक होगा।’ इस प्रकार देवराज इन्द्र ने मुझ पर अनुग्रह करके यह आश्वासन दिया और स्वर्गलोक से यहाँ भेजा। अलनघ! वही यह व्रत प्राप्त हुआ था, जिसको मैंने पूरा किया है। महाबाहो! मैं बड़े भाई की आज्ञा से इस वर्ष एक व्रत का पालन कर रहा था।

उस व्रत की जो दिनचर्या है, उसके अनुसार मैं नपुंसक बनकर रहा हूँ। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ वास्तव में मैं नपुंसक नहीं हूँ; भाई की आज्ञा के अधीन होकर धर्म के पालन में तत्पर रहा हूँ। राजकुमार! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अब मेरा व्रत समाप्त हो गया है; अतः मैं नपुंसक भाव के कष्ट से भी मुक्त हो चुका हूँ। उत्तर ने कहा - नरश्रेष्ठ! आ मुझ पर आपने बड़ा उनुग्रह किया, जो मुझे सब बात बता दी। ऐसे लक्षणों वाले पुरुष नपुंसक नहीं होते, इस प्रकार जो मेरे मन में तर्क उठ रहा था, वह व्यर्थ नहीं था। अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है; अतः युद्ध भूमि में देवताओं का भी सामना कर सकता हूँ। मेरा सारा भय नष्ट हो गया। बताइये, अब मैं क्या करूँ ? पुरुष प्रवर! मैंने गुरु से सारथ्य कर्म की शिक्षा प्राप्त की है; इसलिये आपके घाड़ों को, जो शत्रु के रथ का नाश करने वाले हैं, मैं काबू में रक्खूँगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः