त्रयोविंश (23) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व: त्रयोविंश अध्यायः अध्याय श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन ने उपकीचकों को वध करने के लिये अँगड़ाई लेते हुए अपने शरीर को बढ़ा लिया और प्रयत्नपूर्वक वेष बदलकर बिना दरवाजे के ही दीवार फाँदकर पाकशाला से बाहर निकल गये। फिर वे नगर का परकाटा लाँघकर बड़े वेग से एक वृक्ष पर चढ़ गये (और वहीं से यह देखने लगे कि उपकीचक द्रौपदी को किधर ले जा रह हैं)। तत्पश्चात् वे उपकीचक जिधर गये थे, उसी ओर भीमसेन भी श्मशानभूमि की दिशा में चल दिये। चाहरदीवारी लाँघने के पश्चात् उस श्रेष्ठ नगरी से निकलकर भीमसेन इतने वेग से चले कि सूतपुत्रों से पहले ही वहाँ पहुँच गये। राजन्! चिता के समीप जाकर उन्होंने वहाँ ताड़ के बाराबर एक वृक्ष देखा, जिसकी शाखाएँ बहुत बड़ी थीं और जो ऊपर से सूख गया था। उस वृक्ष की ऊँचाई दस व्याम[1] थी।
राजेन्द्र! उन्हें भागते देख वायुपुत्र बलवान् भीम ने, वज्रधारी इन्द्र जैसे दानवों का वध करते हैं, उसी प्रकार उस वृक्षा से एक सौ पाँच उपकीचकों को यमराज के घर भेज दिया। महाराज्! तदनन्तर उन्होंने द्रौपदी को बन्धन से मुक्त करके आश्वासन दिया। उस समय पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी बड़ी दीन एवं दयनीय हो गयी थी। उसके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। दुर्धर्ष वीर महाबाहु वृकोदर ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा- ‘भीरु! जो तुझ निरपराध अबला को समायेंगे, वे इसी तरह मारे जायँगे। कृष्णे! नगर को जाओ। अब तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। मैं दूसरे मार्ग से विराट की पाकशाला में चला जाऊँगा’। वैशम्पायनजी कहते हैं- भारत! भीमसेन के द्वारा मारे गये वे एक सौ पाँच उपकीचक वहाँ श्मशानभूमि में इस प्रकार सो रहे थे, मानो काटा हुआ महान् जंगल गिरे हुए पेड़ों से भरा हो। राजन्! इस पकार वे एक सौ पाँच उपकीचक और पहले मरा हुआ सेनापित कीचक सब मिलकर एक सौ छः सूतपुत्र मारे गये। भारत! उस समय श्मशानभूमि मे बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ एकत्र हो गयीं थी। उन सबने यह महान् आश्चर्यजनक काण्ड देखा, किंतु भारी विस्मय में पड़कर किसी ने कुछ कहा नहीं। इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोनों हथोंको फैलाने पर जितनी लम्बाई होते है, उसे एक व्याम कहते है।
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