चतुःषष्टितम (64) अध्याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 63-83 का हिन्दी अनुवाद
उस समय सुन्दर अंगों वाली दमयन्ती ने उनसे कहा- ‘भगवन्! निष्पाप महाभागगण! यहाँ तप, अग्निहोत्र, धर्म, मृग और पक्षियों के पालन तथा अपने धर्म के आचरण आदि विषयों में आप लोग सकुशल हैं न?’ तब उन महात्माओं ने कहो- ‘भद्रे! यशस्विनी! सर्वत्र कुशल है। सर्वांगसुन्दरी! बताओ, तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो? तुम्हारे उत्तम रूप को परम सुन्दर कांति को यहाँ देखकर हमें बड़ा विस्मय हो रहा है। धैर्य धारण करो, शोक न करो। तुम इस वन की देवी हो या इस पर्वत की अधिदेवता। अनिन्दिते! कल्याणि! अथवा तुम इस नदी की अधिष्ठात्री देवी हो, सच-सच बताओ।’ दमयन्ती ने उन ऋषियों से कहा- ‘तपस्या के धनी ब्राह्मणों! न तो मैं इस वन की देवी हूं, न पर्वत की अधिदेवता और न इस नदी की ही देवी हूँ। आप सब लोग मुझे मानवी समझें। मैं विस्तारपूर्वक अपना परिचय दे रहीं हूं, आप लोग सुनें। विदर्भ देश में भीम नाम के प्रसिद्ध एक भूमिपाल हैं। द्विजवरों! आप सब महात्मा जान लें, मैं उन्हीं महाराज की पुत्री हूँ। निषध देश के स्वामी, संग्रामविजयी, वीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, प्रजापालक महायशस्वी राजा नल मेरे पति हैं। वे देवताओं के पूजन में संलग्न रहते हैं और ब्राह्मणों के प्रति उनके हृदय में बड़ा स्नेह है। वे निषधकुल के रक्षक, महातेजस्वी, महाबली, सत्यवादी, धर्मज्ञ, विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, शत्रुमर्दन, ब्राह्मणभक्त, देवोपासक, शोभा तथा सम्पति से युक्त तथा शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले हैं। मेरे स्वामी नृपश्रेष्ठ नल देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके नेत्र विशाल हैं, उनका मुख सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर है व शत्रुओं का संहार करने वाले, बड़े-बड़े यज्ञों के आयोजन और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् हैं। युद्ध में उन्होंने कितने शत्रुओं का संहार किया है। वे सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी और कांतिमान् हैं। एक दिन कुछ कपटकुशल, अजितेन्द्रिय, अनार्य, कुटिल तथा द्यूतनिपुण जुआरियों ने उन सत्य धर्मपरायण महाराज नल को जूए के लिये आवाहन करके उनके सारे राज्य और घन का अपहरण कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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