महाभारत वन पर्व अध्याय 35 श्लोक 18-35

पंचत्रिंश (35) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


परंतप युधिष्ठिर! आप शीलस्वभाव के दोष और कोमलता से एवं दयाभाव से युक्त होने के कारण इतने क्लेश सह रहे हैं, परन्तु महाराज! इसके लिये आपकी कोई प्रशंसा नहीं करता। राजन्! आपकी बुद्धि अर्थज्ञान से रहित वेदों के अक्षरमात्र को रटने वाले मन्दबुद्धि श्रोत्रिय की तरह केवल गुरु की वाणी का अनुसरण करने के कारण नष्ट हो गयी है। यह तात्त्विक अर्थ को समझने या समझाने वाली नहीं है। आप दयालु ब्राह्मणरूप हैं पता नहीं, क्षत्रिय कुल में कैसे आपका जन्म हो गया; क्योंकि क्षत्रिय योनि में तो प्राय; क्रूर बुद्धि के ही पुरुष उत्पन्न होते हैं। महाराज! आपने राजधर्म का वर्णन तो सुना ही होगा, जैसा मनु जी ने कहा है। फिर क्रूर, मायावी, हमारे हित के विपरीत आचरण करने वाले तथा अशांत चित्त वाले दुरात्मा धृतराष्ट्र के पुत्रों का अपराध आप क्यों क्षमा करते हैं? पुरुषसिंह! आप बुद्धि, पराक्रम, शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुल से सम्पन्न होकर भी जहाँ कुछ काम करना है, वहाँ अजगर की भाँति चुपचाप क्यों बैठे हैं?

कुन्तीनन्दन! आप अज्ञातवास के समय जो हम लोगों को छिपाकर रखना चाहते हैं, इससे जान पड़ता है कि आप एक मुट्ठी तिनके से हिमालय पर्वत को ढक देना चाहते हैं। पार्थ! आप इस भूमण्डल में विख्यात हैं, जैसे सूर्य आकाश में छिपकर नहीं बह सकते, उसी प्रकार आप भी कहीं छिपे रहकर अज्ञातवास का नियम नहीं पूरा कर सकते। जहाँ जल की अधिकता हो, ऐसे प्रदेश में शाखा, पुष्प और पत्तों से सुशोभित विशाल शालवृक्ष के समान अथवा श्वेत गजराज ऐरावत के सदृश ये अर्जुन कहीं भी अज्ञात कैसे रह सकेंगे? कुन्तीकुमार! ये दोनों भाई बालक नकुल-सहदेव सिंह के समान पराक्रमी हैं। यह दोनों कैसे छिपकर विचर सकेंगे? पार्थ! यह वीरजननी पवित्रकीर्ति राजकुमारी द्रौपदी सारे संसार में विख्यात है। भला, यह अज्ञातवास के नियम कैसे निभा सकेगी। महाराज! मुझे भी प्रजावर्ग के बच्चे तक पहचानते हैं, जैसे मेरु पर्वत को छिपाना असम्भव है, उसी प्रकार मुझे अपनी अज्ञातचर्या भी सम्भव नहीं दिखायी देती।

राजन्! इसके सिवा एक बात और है, हम लोगों ने भी बहुत-से राजाओं तथा राजकुमारों को उनके राज्य से निकाल दिया है। वे सब आकर राजा धृतराष्ट्र से मिल गये होंगे, हमने जिनको राज्य से वंचित किया अथवा निकाला है, वे कदापि हमारे प्रति शांत भाव नहीं धारण कर सकते। अवश्य ही दुर्योधन का प्रिय करने की इच्छा रखकर वे राजा लोग भी हम लोगों को धोखा देना उचित समझकर हम लोगों की खोज करने के लिये बहुत-से छिपे हुए गुप्तचर नियुक्त करेंगे और पता लग जाने पर निश्चय ही दुर्योधन को सूचित कर देंगे। उस दशा में हम लोगों पर बड़ा भारी भय उपस्थित हो जायेगा। हमने अब तक वन में ठीक-ठीक तेरह महीने व्यतीत कर लिये हैं, आप इन्हीं को परिणाम में तेरह वर्ष समझ लीजिये। मनीषी पुरुषों का कहना है कि मास संवत्सर का प्रतिनिधि है। जैसे पूतिका सोमलता के स्थान पर यज्ञ में काम देती है, उसी प्रकार आप इन तेरह मासों को ही तेरह वर्षों का प्रतिनिधि स्वीकार कर लीजिये। राजन्! अथवा अच्छी तरह बोझ ढोने वाले उत्तम बैल को भरपेट भोजन दे देने पर इस पाप से आपको छुटकारा मिल सकता है। अतः महाराज! आप शत्रुओं का वध करने का निश्चय कीजिये ; क्योंकि समस्त क्षत्रियों के लिये युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में भीम वाक्य विषयक पैतीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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