महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 17-35

द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद


कुन्तीनन्दन! मनुष्य जो कुछ भी देवाराधन की विधि से अपने भाग्य के अनुसार पाता है, उसे निश्चित रूप से दैव (प्रारब्ध) कहा गया है तथा मनुष्य स्वंय कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह सब लोगों को प्रत्यक्ष दिखायी देता है। नरश्रेष्ठ! जो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत्त होकर धन प्राप्त करता है, किसी कारणवश नहीं, उसके उस धन को स्वाभाविक फल समझना चाहिये। इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्म से मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं का पाता है, वे सब उसके पूर्व कर्मों के ही फल हैं। जगदाधार परमेश्वर भी उपर्युक्त हठ आदि हेतुओं से जीवों के अपने-अपने कर्म को ही विभक्त करके मनुष्यों को उसके पूर्वजन्म में किये हुए कर्म के फलस्वरूप से यहाँ प्राप्त कराता है। पुरुष यहाँ जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वर द्वारा विहित उसके पूर्वकर्मों के फल का उदय समझिये। यह मानव-शरीर जो कर्म में प्रवृत्त होता है, वह ईश्वर के कर्मफल सम्पादन-कार्य का साधन है। वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह विवश होकर (स्वेच्छा-प्रारब्ध भोग के लिये) वैसा ही करता है।

कुन्तीनन्दन! परमेश्वर ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कार्यों में लगाते और स्वभाव के परवश हुए उन प्राणियों से कर्म कराते हैं। किंतु वीर! मन से अभीष्ट वस्तुओं का निश्चय करके फिर कर्म द्वारा मनुष्य स्वयं बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है। अतः पुरुष ही उसमें कारण है। नरश्रेष्ठ! कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। गृह एवं नगर आदि सभी की प्राप्ति में पुरुष ही कारण है। विद्वान् पुरुष पहले बुद्धि द्वारा यह निश्चय करे कि तिल में तेल है, गाय के भीतर दूध है, और काष्ठ में अग्नि है, तत्पश्चात् उसकी सिद्धि के उपाय का निश्चय करे। तदनन्तर उन्हीं उपायों द्वारा उस कार्य की सिद्धि के लिये प्रवृत्त होना चाहिये। सभी प्राणी इस जगत् में उस कर्मजनित सिद्धि का सहारा लेते हैं। योग्य कर्ता के द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंग से सम्पादित होता है। यह कार्य किसी अयोग्य कर्ता के द्वारा किया गया है, यह बात कार्य की विशेषता से अर्थात् परिणाम से जानी जाती है।

यदि कर्मसाध्य फलों में पुरुष (एवं उसका प्रयत्न) कारण न होता अर्थात् वह कर्ता नहीं बनता तो किसी को यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मों का फल नहीं मिलता। फिर तो न कोई किसी का शिष्य होता और न गुरु ही। कर्ता होने के कारण ही कार्य सिद्धि में पुरुष की प्रशंसा की जाती है और जब कार्य की सिद्धि नहीं होती, तब उसकी निंदा की जाती है। यदि कर्म का सर्वथा नाश ही हो जाये, तो यहाँ कार्य की सिद्धि ही कैसे हो। कोई तो सब कार्यों को हठ से ही सिद्ध होने वाला बतलाते हैं। कुछ लोग दैव से कार्य की सिद्धि का प्रतिपादन करते हैं तथा कुछ लोग पुरुषार्थ को ही कार्यसिद्धि का कारण बताते हैं। इस तरह ये तीन प्रकार के कारण बताये जाते हैं। दूसरे लोगों की मान्यता इस प्रकार है कि मनुष्य के प्रयत्न की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अदृश्य दैव (प्रारब्ध) तथा हठ-ये दो ही सब कार्यों के कारण हैं। क्योंकि यह देखा जाता है कि हठ तथा दैव से सब कार्यों की धारावाहिक रूप से सिद्धि हो रही है। जो लोग तत्त्वज्ञ एवं कुशल हैं, वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल दैव से, कुछ हठ से और कुछ स्वभाव से प्राप्त करता है। इस विषय में इन तीनों के सिवा कोई चौथा कारण नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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