महाभारत वन पर्व अध्याय 314 श्लोक 17-29

चतुर्दशाधिकत्रिशततम (314) अध्‍याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्दशाधिकत्रिशततम अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


इसके बाद धर्मराज ने पुनः सत्यपराक्रमी युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए कहा- ‘भरतनन्दन! यद्यपि तुम इस पृथ्वी पर इसी रूप से विचरोगे, तो भी तीनों लोकों में कोई भी तुम्हें नहीं पहचान सकेगा। कुरुनन्दन पाण्डवगण! मेरी कृपा से तुम लोग तेरहवें वर्ष में गुप्त रूप से विराट नगर में रहते हुए किसी से भी पहचाने न जाकर विचरण करोगे तथा तुममें से जो-जो मन से जैसा संकल्प करेगा, वह इच्छानुसार वैसा-वैसा ही रूप धारण कर सकेगा। यह अरणी सहित मन्थनकाष्ठ उस ब्राह्मण को दे दो। तुम्हारी परीक्षा के लिये ही मैंने मृग का रूप धारण करके इसका हरण किया था। सौम्य! इसके अतिरिक्त तुम एक और भी अभीष्ट वर माँग लो। वह मैं तुम्हें दूँगा। नरश्रेष्ठ! तुम्हें वर देते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। बेटा! तुम तीसरा भी महान् एवं अनुपम वर माँग लो। राजन्! तुम मेरे पुत्र हो और विदुर ने भी मेरे ही अंश से जन्म लिया है’।

युधिष्ठिर बोले- पिताजी! आप सनातन देवाधिदेव हैं। आज मुझे साक्षात् आपके दर्शन हो गये। आप प्रसन्न होकर मुझे जो भी वर देंगे, उसे मैं शिरोधार्य करूँगा। विभो! मुझे ऐसा वर दीजिये कि मैं लोभ, मोह, क्रोध को जीत सकूँ तथा दान, तप और सत्य में सदा मेरा मन लगा रहे।

धर्मराज ने कहा- पाण्डुपुत्र! तुम तो स्वयं धर्मस्वरूप ही हो। अतः इन गुणों से तो स्वभाव से ही सम्पन्न हो। आगे भी तुम्हारे कथनानुसार तुम में ये सब धर्म बने रहेंगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर लोकरक्षक भगवान धर्म अन्तर्धान हो गये एवं सुखपूर्वक सोकर उठने से श्रमरहित हुए मनस्वी वीर पाण्डवगण एक़ होकर आश्रम में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने उस तपस्वी ब्राह्मण को उसकी अरणी एवं मन्थनकाष्ठ दे दिये।

भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के पुनः जीवन लाभ करने से सम्बन्ध रखने वाले तथा पिता धर्म और पुत्र युधिष्ठिर के संवाद तथा समागमरूप, कीर्ति को बढ़ाने वाले इस प्रशस्त उपाख्यान का जो पुरुष पाठ करता है, वह जितेन्द्रिय, वशी तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है तथा जो लोग सदा इस मनोहर उपाख्यान को स्मरण रक्खेंगे; उनका मन अधर्म में, सुहृदों के भीतर फूट डालने में, दूसरों का धन हरने में, परस्त्रीगमन में अथवा कृपणता में कभी प्रवृत्त नहीं होगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में नकुल आदि के जीवित होने आदि वरों की प्राप्ति विषयक तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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