एकषष्टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: वन पर्व ( व्रीहिद्रौणिक पर्व )
महाभारत: वन पर्व: एकषष्टयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 34-51 का हिन्दी अनुवाद
मुद्गल बोले- देवदूत! तुमने स्वर्ग के महान दोष बताये, परन्तु स्वर्ग की अपेक्षा यदि कोई दूसरा लोक इन दोषोंसे सर्वथा रहित हो, तो मुझसे उसका वर्णन करो। देवदूत ने कहा- ब्रह्माजी के भी लोक से ऊपर भगवान् विष्णु का परमधाम है। वह शुद्ध सनातन ज्योतिर्मय लोक है। उसे परम ब्रह्मा भी कहते हैं। विप्रवर! जिनका मन विषयों में रचा-पचा रहता है, वे लोग वहाँ नहीं जा सकते। दम्भ, लोभ, महाक्रोध, मोह और द्रोह से युक्त मनुष्य भी वहाँ नही पहुँच सकते। जो ममता और अहंकार से रहित, सुख-दु:ख आदि द्वन्दों से ऊपर उठे हुए, जितेन्द्रिय तथा ध्यानयोग में तत्पर हैं, वे मनुष्य ही उस लोक में जा सकते हैं। मुद्गल! तुमने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। साधो! अब आपकी कृपा से हम लोग सुखपूर्वक स्वर्ग की यात्रा करें, विलम्ब नहीं होना चाहिये। व्यास जी कहते हैं- राजन्! देवदूत की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ मुद्गल ने उस पर बुद्धिपूर्वक विचार किया। विचार करके उन्होंने देवदूत से कहा- ‘देवदूत! तुम्हें नमस्कार है। तात्! तुम सुखपूर्वक पधारो! स्वर्ग अथवा वहां का सुख महान दोषों से युक्त है; इसलिये मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। ओह! पतन के बाद तो स्वर्गवासी मनुष्यों को अत्यन्त भंयकर महान दु:ख और अनुताप होता है और फिर वे इसी लोक में विचरते रहते हैं। इसलिये मुझे स्वर्ग में जाने की इच्छा नहीं है। जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक नहीं करते, व्यथित नहीं होते तथा वहां से विचलित नहीं होते हैं, केवल उसी अक्षय धाम का मैं अनुसंन्धान करूँगा’। ऐसा कहकर मुद्गल मुनि ने उस देवदूत को विदा कर दिया और शिल एवं उञ्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले वे धर्मात्मा महर्षि उत्तम रीति से शम-दम आदि नियमों का पालन करने लगे। उनकी दृष्टि में निन्दा और स्तुति समान हो गयी। वे मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण को समान समझने लगे और विशुद्ध ज्ञानयोग के द्वारा नित्य ध्यान में तत्पर रहने लगे। ध्यान से (परम वैराग्य का) बल पाकर उन्हें उत्तम बोध प्राप्त हुआ और उसके द्वारा उन्होंने सनातन मोक्षरूपा परम सिद्धि प्राप्त कर ली। कुन्तीनन्दन! इसलिये तुम भी समृद्धिशाली राज्य से भ्रष्ट होने के कारण शोक न करो; तपस्या द्वारा तुम उसे प्राप्त कर लोगे। मनुष्य पर सुख के बाद दु:ख और दु:खके बाद सुख बारी-बारी से आते रहते हैं। जैसे अरे नेमि से जुड़े हुए ऊँचे-नीचे आते रहते हैं, वैसे ही मनुष्य का दु:ख-सुख से सम्बन्ध होता रहता है। अमित पराक्रमी युधिष्ठिर तुम तेरहवें वर्ष के बाद अपने बाप-दादों का राज्य प्राप्त कर लोगे, अत: अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! परम बुद्धिमान भगवान् व्यास पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से ऐसा कहकर तपस्या के लिये पुन: अपने आश्रम की ओर चले गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्व में मुद्गल-देवदूत संवाद विषयक दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज