त्रयधिकद्विशततम (203) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: त्रयधिकद्विशततमो अध्याय: श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद
महाराज! वे दोनों महाबली दानव बड़े अभिमानी थे। उन्होंने हंसकर इन्द्रियों के स्वामी भगवान मधुसूदन से एक साथ कहा- ‘सुरश्रेष्ठ! हम दोनों तुम्हें वर देते हैं। देव! तुम्हीं हम लोगों से वर मांगो। हम दोनों तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुसार वर देंगे। तुम बिना सोचे-विचारे जो चाहो, मांग लो’। श्री भगवान बोले- वीरों! मैं तुम से अवश्य वर लूंगा। मुझे तुम से वर प्राप्त करना अभीष्ट है: क्योंकि तुम दोनों बड़े पराक्रमी हो। तुम्हारे-जैसा दूसरा कोई पुरुष नहीं है। सत्यपराक्रमी वीरो! तुम दोनों मेरे हाथ से मारे जाओ। मैं सम्पूर्ण जगत् के हित के लिये तुम से यही मनोरथ प्राप्त करना चाहता हूँ। मधु और कैटभ ने कहा- पुरुषोत्तम! हम लोगों ने पहले कभी स्वच्छन्द (मर्यादारहित) बर्ताव में भी झूठ नहीं कहा है, फिर और समय में तो हम झूठ बोल ही कैसे सकते हैं? आप हम दोनों को सत्य और धर्म में अनुरक्त मानिये। बल, रूप, शौर्य और मनोनिग्रह में हमारी समता करने वाला कोई नहीं है। धर्म, तपस्या, दान, शील, सत्व तथा इन्द्रियसंयम में भी हमारी कहीं तुलना नहीं है। किंतु केशव! हम लोगों पर यह महान् संकट आ पहुँचा है। अब आप भी अपनी कही हुई बात पूर्ण कीजिये। काल का उल्लंघन करना बहुत ही कठिन है। देव! सुरश्रेष्ठ! विभो! हम दोनों आपके द्वारा एक ही सुविधा चाहते हैं। वह यह है कि आप इस खुले आकाश में ही हमारा वध कीजिये। सुन्दर नेत्रों वाले देवेश्वर! हम दोनों आपके पुत्र हों। हमने आपसे यही वर मांगा है। आप इसे अच्छी तरह समझ लें। सुरश्रेष्ठ देव! हमने जो प्रतिज्ञा की है, वह असत्य नहीं होनी चाहिये। श्री भगवान बोले- बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा। यह सब कुछ (तुम्हारी इच्छा के अनुसार) होगा। भगवान विष्णु ने बहुत सोचने पर जब कहीं खुला आकाश न देखा और स्वर्ग अथवा पृथ्वी पर भी जब उन्हें कोई खुली जगह न दिखायी दी, तब महायशस्वी देवेश्वर मधुसूदन ने अपनी दोनों जांघों को अनावृत (वस्त्ररहित) देखकर मधु और कैटभ के मस्तकों को उन्हीं पर रखकर तीखी धार वाले चक्र से काट डाला।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में धुन्धुमारोपाख्यान विषयक दो सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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