द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद
वामदेव जी ने कहा- 'नरेश्वर! तुम विष के बुझाये हुए इस विकराल बाण को मुझे मारने के लिये धनुष पर चढ़ा रहे हो, परंतु कहे देता हूं 'इस बाण को न तो तुम धनुष पर रख सकोगे और न छोड़ ही सकोगे'। राजा बोले- 'इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो! देखो, मैं फंस गया। अब यह बाण नहीं छोड़ सकूंगा। इसलिये वामदेव को नष्ट करने का उत्साह जाता रहा। अतः यह महर्षि दीर्घायु होकर जीवित रहे।' वामदेव जी ने कहा- 'राजन्! तुम इस बाण से अपनी रानी का स्पर्श कर लेने पर ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाओगे।' तब राजा ने ऐसा ही किया। तदनन्तर राजपुत्री ने मुनि से कहा। राजपुत्री बोली- 'वामदेव जी! मैं इन कठोर स्वभाव वाले अपने स्वामी को प्रतिदिन सावधन रहकर मीठे वचन बोलने की सलाह देती रहती हूं और स्वयं ब्राह्मणों की सेवा का अवसर ढूंढ़ती हूं। ब्रह्मन्! इन सत्कर्मों के कारण मुझे पुण्यलोक की प्राप्ति हो।' वामदेव ने कहा- 'शुभ दृष्टि वाली अनिन्द्य राजकुमारी! तुमने इस राजकुल को ब्राह्मण के कोप से बचा लिया। इसके लिये कोई अनुपम वर मांगो। मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। तुम इन स्वजनों के हृदय और विशाल इक्ष्वाकु राज्य पर शासन करो।' राजकुमारी बोली- 'भगवन! में यही चाहती हूँ कि मेरे ये पति आज सब पापों से छुटकारा पा जाएँ। आप ये आशीर्वाद दें कि ये पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित सुख से रहें। विप्रवर! मैंने आप से यही वर माँगा है।' मार्कण्डेय जी कहते हैं- 'कुरु कुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर! राजपुत्री की यह बात सुनकर वामदेव मुनि ने कहा- ‘ऐसा ही होगा।‘ तब राजा दल बड़े प्रसन्न हुए और महर्षि को प्रणाम करके वे दोनों वाम्य अश्व उन्हें लौटा दिये।
इस प्रकार श्रीमहाभरत वनपर्व के अंतर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में मण्डूकोपाख्यान विषयक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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