महाभारत वन पर्व अध्याय 162 श्लोक 27-38

द्विषष्‍टयधिकशततम (162) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुबेर की कही हुई ये बातें सुनकर पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर भरतकुलभूषण भीमसेन ने उठायी हुई शक्ति, गदा, खड्ग और धनुष को नीचे करके कुबेर को नमस्कार किया। तब शरण देने वाले धनाध्यक्ष कुबेर ने अपनी शरण में आये हुए भीमसेन से कहा- 'पाण्डुनन्दन! तुम शत्रुओं का मान मर्दन और सुहृदों का आनन्दवर्धन करने वाले बनो।

शत्रुओं को संताप देने वाले भरतकुलभूषण पाण्डवो! तुम सब लोग अपने रमणीय आश्रमों में निवास करो। यक्ष लोग तुम्हारी अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति में बाधा नहीं डालोगे। निद्राविजयी अर्जुन अस्त्र-विद्या सीखकर साक्षात् इन्द्र के भेजने पर शीघ्र ही यहाँ आवेंगे और तुम सब लोगों से मिलेंगे।'

इस प्रकार उत्तम कर्म करने वाले युधिष्ठिर को उपदेश देकर यक्षराज कुबेर गिरिश्रेष्ठ कैलास को चले गये। उनके पीछे सहस्रों यक्ष और राक्षस भी अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ हो चल दिये। उनके वे वाहन नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित थे और उनकी पीठ पर बहुरंगे कम्बल आदि कसे हुए थे।

जैसे इन्द्रपुरी के मार्ग पर चलने वाले विविध वाहनों का कोलाहल सुनायी पड़ता है, उसी प्रकार कुबेरभवन के प्रति यात्रा करने वाले उत्तम अश्वों का शब्द ऐसा जान पड़ता था, मानो पक्षी उड़ रहे हों। धनाध्यक्ष कुबेर के वे घोड़े अपने साथ बादलों को खींचते और वायु को पीते हुए से तीव्र गति से आकाश में उड़ चले। तदनन्तर कुबेर की आज्ञा से राक्षसों के वे निर्जीव शरीर उस पर्वत-शिखर से दूर हटा दिये गये।

बुद्धिमान् अगस्त्य ने यक्षों के लिये शाप की वही अवधि निश्चित की थी। जब वे युद्ध में मारे गये, तब उनके शाप का अन्त हो गया। महामना पाण्डव अपने उन आश्रमों में सम्पूर्ण राक्षसों से पूजित एवं उद्वेग-शून्य होकर सुख से रात्रि व्यतीत करने लगे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्व में कुबेर वाक्य विषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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