महाभारत वन पर्व अध्याय 160 श्लोक 27-48

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 27-48 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी की यह बात सुनकर परंतप महाबाहु भीमसेन ने इसे अपने ऊपर आक्षेप हुआ-सा समझा। जैसे अच्छा बैल अपने ऊपर चाबुक की मार नहीं सह सकता, उसी प्रकार यह आक्षेप उनसे नहीं सहा गया। उनकी चाल श्रेष्ठ सिंह के समान थी। वे सुन्दर, उदार और कनक के समान कान्तिमान् थे। पाण्डुनन्दन भीम मनस्वी, बलवान्, अभिमानी, मानी और शूरवीर थे। उनकी आंखें लाल थीं। दोनों कंधे हष्ट-पुष्ट थे। उनका पराक्रम मतवाले गजराज के समान था। दांत सिंह की दाढ़ों की समानता करते थे। कंधे विशाल थे। वे शालवृक्ष की भाँति ऊँचे जान पड़ते थे। उनका हृदय महान् था, सभी अंग मनोहर जान पड़ते थे, ग्रीवा शंख के समान थी और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। वे सुवर्ण की पीठ वाले धनुष, खड्ग तथा तरकस पर बार-बार हाथ फरते थे। बलवान् भीमसेन मदोन्मत्त सिंह और मद की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति भय और मोह से रहित हो उस पर्वत पर चढ़ने लगे।

मदवर्षी कुंजर और मृगराज की भाँति आते हुए धनुष-बाणधारी भीमसेन को उस समय सब भूतों ने देखा। पाण्डुनन्दन भीम गदा हाथ में लेकर द्रौपदी का हर्ष बढ़ाते हुए भय और घबराहट छोड़कर उस पर्वतराज पर चढ़ गये। वायुपुत्र कुन्तीकुमार भीमसेन को कभी ग्लानि, कातरता, व्याकुलता और मत्सरता आदि भाव नहीं छूते थे। वह पर्वत ऊँची-नीची भूमियों से युक्त और देखने में भयंकर थे। उसकी ऊँचाई कई ताड़ों के बराबर थी और उस पर चढ़ने के लिये एक ही मार्ग था, तो भी महाबली भीमसेन उसके शिखर पर चढ़ गये। पर्वत के शिखर पर आरूढ़ हो महाबली भीम किन्नर, महानाग, मुनि, गन्धर्व तथा राक्षसों का हर्ष बढ़ाने लगे। तदनन्तर भरतश्रेष्ठ भीमसेन ने कुबेर का निवास स्थान देखा, जो सुवर्ण और स्फटिक मणि के बने हुए भवनों से विभूषित था। उसके चारों ओर सोने की चहारदीवारी बनी थी। उसमें सब प्रकार के रत्न जड़े होने से उनकी प्रभा फैलती रहती थी। चहारदीवारी के सब ओर सुन्दर बगीचे थे। उस चहारदीवारी की ऊँचाई पर्वत से भी अधिक थी। बहुत से भवनों और अट्टालिकाओं से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। द्वार, तोरण (गोपुर), बुर्ज और ध्वज समुदाय उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस भवन में सब ओर कितनी ही विलासिनी अप्सराएं नृत्य कर रही थीं और हवा से फहराती हुई पताकाएं उस भवन का अलंकार बनी हुई थीं।

अपनी तिरछी की हुई बाहु से धनुष की नोक को स्थिर करके भीमसेन उस धनाध्यक्ष कुबेर के नगर को बड़े खेद के साथ देख रहे थे। गन्धमादन से उठी हुई वायु सम्पूर्ण सुगन्ध की राशि लेकर समस्त प्राणियों को आनन्दित करती हुई सुखद मन्द गति से बह रही थी। वहाँ के अत्यन्त शोभाशाली विविध वृक्ष नाना प्रकार की कान्ति से प्रकाशित हो रहे थे। उनकी मंजरियां विचित्र दिखायी देती थीं। वे सब-के-सब अद्भुत ओर अकथनीय जान पड़ते थे। भरतश्रेष्ठ भीम ने राक्षसराज कुबेर के उस स्थान को रत्नों के समुदाय से सुशोभित तथा विचित्र मालाओं से विभूषित देखा। उनके हाथ में गदा, खड्ग और धनुष शोभा पा रहे थे। उन्होंने अपने जीवन का मोह सर्वथा छोड़ दिया था। वे महाबाहु भीमसेन वहाँ पर्वत की भाँति अविचल भाव से कुछ देर खड़े रहे। तत्पश्चात् उन्होंने बड़े जोर से शंख बजाया, जिसकी आवाज शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। फिर धनुष की टंकार करके समस्त प्राणियों को मोहित कर दिया। तब यक्ष, राक्षस और गन्धर्व रोमांचित होकर उस शब्द को लक्ष्य करके पाण्डुनन्दन भीमसेन के समीप दौड़े आये। उस समय गदा, परिघ, खड्ग, शूल, शक्ति और फरसे आदि अस्त्र-शस्त्र उन यक्षों तथा राक्षसों के हाथों में आकर बड़ी चमक पैदा कर रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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