महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 48-63

तृतीय (3) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 48-63 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अपने पिता व्यास जी का यह वचन सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा- ‘भगवन्! मैं तो इसे पूर्वनिश्चित दैव का विधान मानता हुं; अत: यह जनसंहार होगा ही। यदि राजा लोग क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध में मारे जायंगे तो वीरलोक को प्राप्त होकर केवल सुख के भागी होंगे। वे पुरुषसिंह नरेश महायुद्ध में प्राणों का परित्याग करके इहलोक में कीर्ति तथा परलोक में दीर्घकाल तक महान् सुख प्राप्त करेंगे’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! अपने पुत्र धृतराष्‍ट्र के इस प्रकार यथा‍र्थ बात कहने पर ज्ञानियों में श्रेष्‍ठ महर्षि व्यास कुछ देर तक बड़े सोच-विचार में पड़े रहे दो घड़ी तक चिन्तन करने के बाद वे पुन: इस प्रकार बोले- ‘राजेन्द्र! इसमें संशय नहीं है कि काल ही इस जगत् का संहार करता है और वही पुन: इन सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करता है। यहाँ कोई वस्तु सदा रहने वाली नहीं है। राजन्! तुम अपने जाति-भाई, कौरवों, सगे-सम्बन्धियों तथा हितैषी-सुहृदों को धर्मानुकूल मार्ग का उपदेश करो; क्यों‍कि तुम उन सबको रोकने में समर्थ हो। जाति-वध को अत्यन्त नीच कर्म बताया गया है। वह मुझे अत्यन्त अप्रिय हैं। तुम यह अप्रिय कार्य न करो।

महाराज! यह काल तुम्हारे पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ है। वेद में हिंसा की प्रशंसा नहीं की गयी है। हिंसा से किसी प्रकार हित नहीं हो सकता। कुल-धर्म अपने शरीर ही समान है। जो इस कुल धर्म का नाश करता हैं, उसे वह धर्म ही नष्‍ट कर देता हैं। जब तक धर्म का पालन सम्भव है (जब तक तुम पर कोई आपत्ति नहीं आयी है), तब तक तुम काल से प्ररित होकर ही धर्म की अवहेलना करके कुमार्ग पर चल रहे हो, जैसा कि बहुधा लोग किसी आपत्ति में पड़ने पर ही करते हैं। राजन्! तुम्हारे कुल का तथा अन्य बहुत-से राजाओं का विनाश करने के लिये यह तुम्हारे राज्य के रूप में अनर्थ ही प्राप्त हुआ हैं। तुम्हारा धर्म अत्यन्त लुप्त हो गया है। अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओं। दुर्धर्ष वीर! तुम्हें राज्य लेकर क्या करना है, जिसके लिये अपने ऊपर पाप का बोझ लाद रहे हो? तुम मेरी बात मानने पर यश, धर्म और कीर्ति का पालन करते हुए स्वर्ग प्राप्त कर लोगे। पाण्‍डवों को उनके राज्य प्राप्त हों और समस्त कौरव आपस में संधि करके शान्त हो जायं’। विप्रवर व्यास जी जब इस प्रकार उपदेश दे रहे थे, उसी समय बोलने में चतुर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने बीच में ही उनकी बात काटकर उनसे इस प्रकार कहा।

धृतराष्‍ट्र बोले- तात! जैसा आप जानते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन बातों को समझता हूँ। भाव और अभाव का यथार्थ स्वरूप मुझे भी ज्ञात है, तथापि यह संसार अपने स्वार्थ के लिये मोह में पड़ा रहता है। मुझे भी संसार से अभिन्न ही समझें। आपका प्रभाव अनुपम है। आप हमारे आश्रय, मार्गदर्शक तथा धीर पुरुष हैं। मैं आपको प्रसन्न करना चाहत हूँ। महर्षे! मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती; परंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। आप ही हम भरतवंशियों की धर्म-प्रवृत्ति, यश तथा कीर्ति के हेतु हैं। आप कौरवों ओर पाण्‍डवों-दोनों के माननीय पितामह हैं। व्यास जी बोले- विचित्रवीर्यकुमार! नरेश्‍वर! तुम्हारे मन में जो संदेह है, उसे अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट करो। मैं तुम्हारे संशय का निवारण करूंगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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