महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 10-17

पच्चत्रिंश (35) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: पच्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 11

अनेक मुख और नेत्रों से युक्‍त,[1] अनेक अद्भुत दर्शनों वाले,[2] बहुत-से दिव्‍य भूषणों से युक्‍त[3] और बहुत-से दिव्‍य शस्त्रों को हाथों में उठाते हुए,[4] दिव्‍य माला और वस्‍त्रों को धारण किये हुए[5] और दिव्‍य गन्‍ध का सारे शरीर में लेप किये हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्‍त, सीमारहित और सब ओर मुख किये हुए विराट स्‍वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्‍पन्‍न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित ही हो।[6] पाण्‍डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्‍त अर्थात पृथक-पृथक सम्‍पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्‍ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा।[7] उसके अनंतर वह आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन[8] प्रकाशमय विश्वरूप परमात्‍मा को श्रद्धा-भक्तिसहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला।[9]

अर्जुन बोले- हे देव! मैं आपके शरीर में सम्‍पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को[10] और सम्‍पूर्णऋषियों को तथा दिव्‍य सर्पों को देखता हूँ।[11] हे सम्‍पूर्ण विश्व के स्‍वामिन! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अंत को देखता हूं, न मध्‍य को और न आदि को ही। आपको मैं मुकुटयुक्‍त, गदायुक्‍त और चक्रयुक्‍त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुञ्ज, प्रज्‍वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्‍योतियुक्‍त, कठिनता से देखे जाने योग्‍य और सब ओर से अप्रमेयस्‍वरूप देखता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुन ने भगवान का जो रूप देखा, उसके प्रधान नेत्र तो चन्‍द्रमा और सूर्य बतलाये गये हैं (गीता 11:19), परंतु उसके अंदर दिखलायी देने वाले भी असंख्‍य विभिन्‍न मुख और नेत्र थे, इसी से भगवान को अनेक मुखों और नेत्र से युक्‍त बतलाया गया है।
  2. भगवान के उस विराट रूप में अर्जुन ने ऐसे असंख्‍य अलौकिक विचित्र दृश्‍य देखे थे, इसी कारण उनके लिये यह विशेषण दिया गया है।
  3. जो गहने लौकिक गहनों से विलक्षण, तेजोमय और अलौकिक हों, उन्‍हें ‘दिव्‍य’ कहते हैं तथा जो रूप ऐसे असंख्‍य दिव्‍य आभूषणों से विभूषित हो, उसे ‘अनेकदिव्‍याभरण’ कहते हैं।
  4. जो आयुध अलौकिक तथा तेजोमय हों, उनको ‘दिव्‍य‘ कहते हैं- जैसे भगवान विष्‍णु के चक्र, गदा और धनुष आदि हैं। इस प्रकार के असंख्‍य दिव्‍य शस्त्र भगवान ने अपने हाथों में उठा रखे थे।
  5. विश्वरूप भगवान ने अपने गले में बहुत-सी सुंदर-सुंदर तेजोमय अलौकिक मालाएं धारण कर रखी थीं तथा वे अनेक प्रकार के बहुत ही उत्‍तम तेजोमय अलौकिक वस्त्रों से सुसज्जित थे, इसलिये उनके लिये यह विशेषण दिया गया है।
  6. इस‍के द्वारा विराट स्‍वरूप भगवान के दिव्‍य प्रकाश को निरूमय बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार हजारों तारे एक साथ उदय होकर भी सूर्य की समानता नहीं कर सकते, उसी प्रकार हजार सूर्य यदि एक साथ आकाश में उदय हो जायं तो उनका प्रकाश भी उस विराट स्‍वरूप भगवान के प्रकाश की समानता नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि सूर्यों का प्रकाश अनित्‍य, भौतिक और सीमित है; परंतु विराट स्‍वरूप भगवान का प्रकाश नित्‍य, दिव्‍य, अलौकिक और अपरिमित है।
  7. यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि देवता-मनुष्‍य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग और वृक्ष आदि भोक्‍तृवर्ग, पृथ्‍वी, अंतरिक्ष, स्‍वर्ग और पाताल आदि भोग्‍यस्‍थान एवं उनके भोगने योग्‍य असंख्‍य सामग्रियों के भेद से विभक्‍त- इस समस्‍त ब्रह्माण्‍ड को अर्जुन ने भगवान के शरीर के एक देश में देखा। गीता के दसवें अध्‍याय के अंत में भगवान ने जो यह बात कही थी कि इस सम्‍पूर्ण जगत को मैं एक अंश में धारण किये हुए स्थित हूं, उसी को यहाँ अर्जुन ने प्रत्‍यक्ष देखा।
  8. इस कथन का अभिप्राय यह है कि भगवान के उस रूप को देखकर अर्जुन को इतना महान हर्ष और आश्चर्य हुआ, जिसके कारण उसी क्षण उनका समस्‍त शरीर पुलकित हो गया। उन्होंने इससे पूर्व भगवान का ऐसा ऐश्वर्य पूर्ण स्‍वरूप कभी नहीं देखा था; इसलिये इस अलौकिकरूप को देखते ही हृदयपट पर सहसा भगवान के अपरिमित प्रभाव का कुछ अंश अंकित हो गया, भगवान का कुछ प्रभाव उनकी समझ में आया। इससे उनके हर्ष और आश्चर्य की सीमा न रही।
  9. अर्जुन ने जब भगवान का ऐसा अनंत आश्चर्यमय दृश्‍यों से युक्‍त परम प्रकाशमय और असीम ऐश्वर्य समन्वित महान स्‍वरूप देखा, तब उससे वे इतने प्रभावित हुए कि उनके मन में जो पूर्व जीवन की मित्रता का एक भाव था, वह समसा विलुप्‍त-सा हो गया; भगवान की महिमा के सामने वे अपने को अत्‍यंत तुच्‍छ समझने लगे। भगवान के प्रति उनके हृदय में अत्‍यंत पूज्‍यभाव जाग्रत हो गया और उस पूज्‍यभाव के प्रवाह ने बिजली की तरह गति उत्‍पन्‍न करके उनके मस्‍तक को उसी क्षण भगवान के चरणों में टिका दिया और वे हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्रभाव से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान का स्‍तवन करने लगे।
  10. ब्रह्मा और शिव देवों के भी देव हैं तथा ईश्वर कोटि में हैं, इसलिये उनके नाम विशेषरूप से लिये गये हैं। एवं ब्रह्मा को ‘कमल के आसन पर विराजित’ बतलाकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं भगवान विष्‍णु की नाभि से निकले हुए कमल पर विराजित ब्रह्मा को देख रहा हूँ अर्थात उन्‍हीं के साथ आपके विष्‍णुरूप को भी आपके शरीर में देख रहा हूँ।
  11. यहाँ स्‍वर्ग, मर्त्‍य और पाताल- तीनों लोकों के प्रधान-प्रधान व्‍यक्तियों के समुदाय की गणना करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं त्रिभुवनात्‍मक समस्‍त विश्व को आपको शरीर में देख रहा हूँ।

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