महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 35-43

त्रिश (30) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिश अध्याय: श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 6

श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो! नि:संदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है; परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्‍यास[1] और वैराग्‍य से[2]वश में होता है।

संबंध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि मन को वश में न किया जाय, तो क्‍या हानि है; इस पर भगवान् कहते हैं- जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्‍प्राप्‍य है[3] और वश में किये हुए मन वाले[4] प्रयत्‍नशील पुरुष द्वारा[5] साधन से उसका प्राप्‍त होना सहज है- यह मेरा मत है। संबंध-योगसिद्धि के लिये मन को वश में करना परम आवश्‍यक बतलाया गया। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जिसका मन वश में नहीं हैं, किंतु योग में श्रद्धा होने के कारण जो भगवत्‍प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसकी मरने के बाद क्‍या गति होती है; इसी के लिये अर्जुन पूछते हैं।

अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्‍ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किंतु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अंतकाल में योग से विचलित हो गया है,[6] ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्‍साक्षात्‍कार को न प्राप्‍त होकर किस गति को प्राप्‍त होता है?[7]

हे महाबाहो! क्‍या वह भगवत्‍प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्‍न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्‍ट होकर नष्‍ट तो नहीं हो जाता?[8] हे श्रीकृष्‍ण! मेरे इस संशय को सम्‍पूर्णरूप से छेदन करने के लिये आप ही योग्‍य हैं, क्‍योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना सम्‍भव नहीं है[9]

श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है ओर न परलोक में ही; क्‍योंकि हे प्‍यारे! आत्‍मोद्धार के लिये अर्थात् भगवत्‍प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्‍य दुर्गति को प्राप्ति नहीं होता।[10] योगभ्रष्‍ट पुरुष[11] पुण्‍यवानों के लोकों को अर्थात् स्‍वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्‍त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्‍म लेता है। संबंध-साधारण योगभ्रष्‍ट पुरुषों की गति बतलाकर अब आसक्तिहित उच्‍च श्रेणी के योगभ्रष्‍ट पुरुषों की विशेष गति का वर्णन करते हैं- अथवा[12] वैराग्‍यवान् पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्‍म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो यह जन्‍म है सो संसार में नि:संदेह अत्‍यंत दुर्लभ है[13] वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात् समबुद्धि रूप योग के संस्‍कारों को अनायास ही प्राप्‍त हो जाता है और हे कुरुनंदन! उसके प्रभाव से भी बढ़कर प्रयत्‍न करता है। संबंध-अब पवित्र श्रीमानों के घर में जन्‍म लेने वाले योगभ्रष्‍ट पुरुष की परिस्थिति का वर्णन करते हुए योग को जानने की इच्‍छा का महत्त्व बतलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मन को किसी लक्ष्‍य विषय में तदाकार करने के लिये, उसे अन्‍य विषयों से खींच-खींचकर बार-बार उस विषय में लगाने के लिये किये जाने वाले प्रयत्‍न का नाम ही अभ्‍यास है। यह प्रसंग परमात्‍मा में मन लगाने का है, अतएव परमात्‍मा को अपना लक्ष्‍य बनाकर चित्तवृत्तियों के प्रवाह को बार-बार उन्‍हीं की लगाने का प्रयत्‍न करना यहाँ 'अभ्‍यास' है। इसका विस्‍तार गीता के बारहवें अध्‍याय के नवें श्लोक में देखना चाहिये।
  2. इस लोक और परलोक के सम्‍पूर्ण पदार्थों में से जब आसक्ति और समस्‍त कामनाओं का पूर्णतया नाश हो जाता है, तब उसे 'वैराग्‍य' कहते हैं।
    वैराग्‍य की प्राप्ति के लिये अनेकों साधन हैं, उनमें से कुछ ये हैं-
    1. संसार के पदार्थों में विचार के द्वारा रमणीयता, प्रेम और सुख का अभाव देखना।
    2. उन्‍हें जन्‍म-मृत्‍यु, जरा-व्‍याधि आदि दु:ख-दोषों से युक्‍त, अनित्‍य और भयदायक मानना।
    3. संसार के और भगवान् के यथार्थ तत्त्‍व का निरूपण करने वाले सत्-शास्‍त्रों का अध्‍ययन करना।
    4. परम वैराग्‍यवान् पुरुषों का संग करना, संग के अभाव में उनके वैराग्‍यपूर्ण चित्र और चरित्रों का स्‍मरण, मनन करना।
    5. संसार के टूटे हुए विशाल महलों, वीरान हुए नगरों और गांवों के खंडहरों को देखकर जगत् को क्षणभङ्गुर समझना।
    6. एकमात्र ब्रह्म की ही अखण्‍ड, अदितीय सत्ता का बोध करके अन्‍य सबकी भिन्‍न सत्ता का अभाव समझना।
    7. अधिकारी पुरुषों के द्वारा भगवान् के अकथनीय गुण, प्रभाव, तत्त्‍व, प्रेम, रहस्‍य तथा उनके लीला-चरित्रों का एवं दिव्‍य सौन्‍दर्य-माधुर्य का बार-बार श्रवण करना, उन्‍हें जानना और उन पर पूर्ण श्रद्धा करके मुग्‍ध होना।
  3. जो अभ्‍यास और वैराग्‍य के द्वारा अपने मन को वश में नहीं कर लेते, उनके मन पर राग-द्वेष का अधिकार रहता है और राग-द्वेष की प्रेरणा से वह बंहर की भाँति संसार में ही इधर-उधर उछलता-कूदता रहता है। जब मन भोगों में इतना आसक्‍त होता है, तब उसकी बुद्धि भी बहुशाखा वाली और अस्थिर ही बनी रहती है। (गीता 2।41-44) ऐसी अवस्‍था में उस 'समत्‍वयोग' की प्राप्ति नहीं हो सकती।
  4. वश में हो जाने पर चित्त की चञ्चलता, प्रथमनशीलता, बलवत्ता और कठिन आग्रहकारिता दूर हो जाती है। वह सीधा, सरल और शांत हो जाता है; फिर उसे जब, जहाँ और जितनी देर तक लगाया जाय, चुपचाप लगा रहता है। यही मन के वश में हो जाने की पहचान है।
  5. मन के वश में हो जाने के बाद भी यदि प्रयत्‍न न किया जाय-उस मन को परमात्‍मा में पूर्णतया लगाने का तीव्र साधन न किया जाय तो उससे समत्‍वयोग की प्राप्ति अपने-आप नहीं हो जाती। अत: 'प्रयत्‍न' की आवश्‍यकता सिद्ध करने के लिये ही प्रयत्‍नशील पुरुष द्वारा साधन से योग का प्राप्‍त होना सहज ब‍तलाया गया है।
  6. यहाँ 'योग' शब्‍द परमात्‍मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से किये जाने वाले सांख्‍ययोग, भक्तियोग, ध्‍यानयोग, कर्मयोग आदि सभी साधनों से होने वाले समभाव का वाचक हैं। शरीर से प्राणों का वियोग होते समय जो समभाव से या परमात्‍मा के स्‍वरूप से मन का विचलित हो जाना है, यही मन का योग से विचलित हो जाना है और इस प्रकार मन के विचलित होने में मन की चञ्चलता, आसक्ति, कामना, शरीर की पीड़ा और बेहोशी आदि बहुत-से कारण हो सकते हैं।
  7. पिछले श्‍लोक में जिसका मन वश में नहीं है, उस 'असंयतात्‍मा' के लिये योग का प्राप्‍त होना कठिन बतलाया गया है। वही बात अर्जुन के इस प्रश्‍न का बीज है। इस कारण 'जिसका मन जीता हुआ नहीं है' ऐसे साधक के लक्ष्‍य से 'अयति:' पद का 'असंयमी' अर्थ किया गया है।
    सब प्रकार के योगों के परिणामरूप समभाव का फल जो परमात्‍मा की प्राप्ति है, उसका वाचक यहाँ 'योग-संसिद्धिम्' पद है।
  8. यहाँ अर्जुन का अभिप्राय यह है कि जीवन भर फलेच्‍छा का त्‍याग करके कर्म करने से स्‍वर्गादि भोग तो उसे मिलते नहीं और अंत समय में परमात्‍मा की प्राप्ति के साधन से मन विचलित हो जाने के कारण भगवत्‍प्राप्ति भी नहीं होती। अतएव जैसे बादल का एक टुकड़ा उससे पृथक् होकर पुन: दूसरे बादल से संयुक्‍त न होने पर नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो जाता है, वैसे ही वह साधक स्‍वर्गादि लोक और परमात्‍मा-दोनों की प्राप्ति में वञ्चित होकर नष्‍ट तो नहीं हो जाता यानी उसकी कहीं अधो‍गति तो नहीं होती?
  9. यहाँ अर्जुन भगवान् में अपना विश्वास प्रकट करते हुए प्रार्थना कर रहे हैं कि आप सर्वान्‍तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सम्‍पूर्ण मर्यादाओं के निर्माता और नियंत्रणकर्ता साक्षात् परमेश्वर हैं। अनंतकोटि ब्रह्माण्‍डों के अनंत जीवों की समस्‍त गतियों के रहस्‍य का आपको पूरा पता है और समस्‍त लोक-लाकांतरों की त्रिकाल में होने वाली समस्‍त घटनाएँ आपके लिये सदा ही प्रत्‍यक्ष हैं। ऐसी अवस्था में योगभ्रष्‍ट पुरुषों की गति का वर्णन करना आपके लिये बहुत ही आसान बात है। जब आप स्‍वयं यहाँ उपस्थित हैं, तब मैं और किससे पूछूं और वस्‍तुत: आपके सिवा इस रहस्‍य का दूसरा बतला ही कौन सकता है? अतएव कृपापूर्वक आप ही इस रहस्‍य को खोलकर मेरे संशय जाल का छेदन कीजिये।
  10. जो साधक अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक कलयाण का साधन करता है, उसकी किसी भी कारण से कभी शूकर, कूकर, कीट, पतङ्ग आदि नीच योनियों की प्राप्तिरूप या कुम्‍भीपाक आदि नरकों की प्राप्तिरूप दुर्गति नहीं हो सकती।
  11. ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्‍यानयोग और कर्मयोग आदि का साधन करने वाले जिस पुरुष का मन विक्षेप आदि दोषों से या विषयासक्ति अथवा रोगादि के कारण अंतकाल में लक्ष्‍य से विचलित हो जाता है, उसे 'योगभ्रष्‍ट' कहते हैं।
  12. योगभ्रष्‍ट पुरुषों में से जिनके मन में विषया‍सक्ति होती है, वे तो स्‍वर्गादि लोकों में जाते हैं और पवित्र धनियों के घरों में जन्‍म लेते हैं: परंतु जो वैराग्‍यवान् पुरुष होते हैं, वे न तो किसी लोक में जाते हैं और न उन्हें धनियों के घरों में ही जन्‍म लेना पड़ता है। वे तो सीधे ज्ञानवान् सिद्ध योगियों के घरों में ही जन्‍म लेते हैं। पूर्ववर्णित योगभ्रष्‍ट से इन्‍हें पृथक करने के लिये 'अथवा' का प्रयोग किया गया है।
  13. परमार्थसाधन (योगसाधन) की जितनी सुविधा योगियों के कुल में जन्‍म लेने पर मिल सकती है, उतनी स्‍वर्ग में, श्रीमानों के घर में अथवा अन्‍यत्र कहीं भी नहीं मिल सकती। योगियों के कुल में तदनुकूल वातावरण के प्रभाव से मनुष्‍य प्रा‍रम्भिक जीवन में ही योगसाधन में लग सकता है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानी के कुल में जन्‍म लेने वाला अज्ञानी नहीं रहता, यह सिद्धांत श्रुतियों से भी प्रमाणित है। इसीलिये ऐसे जन्‍म को अत्‍यंत दुर्लभ बतलाया गया है।

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