महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 31-40

षड्विंश (26) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवतद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षड्विंश अध्याय: श्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 2

हे पार्थ! अपने-आप प्राप्‍त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वारा रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्‍यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। यदि तु इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्‍वधर्म और कीर्ति‍ को खोकर पाप को प्राप्त होगा। तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्‍मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे। तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्‍य की निन्‍दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्‍य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दु:ख और क्‍या होगा? या तो युद्ध में मारा जाकर स्‍वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्‍वी का राज्‍य भोगेगा।

इस कारण हे अर्जुन! तु युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा। सम्‍बन्‍ध– उपर्युक्त श्‍लोक में भगवान् ने युद्ध का फल राज्‍यसुख या स्‍वर्ग की प्राप्ति तक बतलाया, किंतु अर्जुन ने तो पहले ही कह दिया था कि इस लोक के राज्‍य की तो बात ही क्‍या है, मैं तो त्रिलोकी के राज्‍य के भी अपने कुल का नाश नहीं करना चाहता; अत: जिसे राज्‍यसुख और स्‍वर्ग की इच्‍छा न हो उसको किस भाव से युद्ध करना चाहिये, यह बात अगले श्‍लोक में बतलायी जाती है– जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। सम्‍बन्‍ध- यहाँ तक भगवान् ने सांख्‍ययोग के सिद्धान्‍त से तथा क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध का औचित्‍य सिद्ध करके अर्जुन को समता-पूर्वक युद्ध करने के लिये आज्ञा दी; अब कर्मयोग के सिद्धान्‍त से युद्ध का औचित्‍य बतलाने के लिये कर्मयोग के वर्णन की प्रस्‍तावना करते हैं– हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तु इसको कर्मयोग के विषय में सुन[1]जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्‍धन को भली-भाँति त्‍याग देगा यानि सर्वथा नष्ट कर डालेगा। सम्‍बन्‍ध- इस प्रकार कर्मयोग के वर्णन की प्रस्‍तावना करके अब उसका रहस्‍यपूर्ण महत्त्‍व बतलाते हैं– इस कर्मयोग में आरम्‍भ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्‍टा फलरूप दोष भी नहीं है; बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्‍म-मृत्‍यु रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।[2] सम्‍बन्‍ध- इस प्रकार कर्मयोग का महत्त्‍व बतलाकर अब उसके आचरण की वि‍धि बतलाने के लिये पहले उस कर्मयोग में परम आवश्‍यक जो सिद्ध कर्मयोगी की निश्चयात्मिका स्‍थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोग में बाधक जो सकाम मनुष्‍यों की भिन्‍न-भिन्‍न बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं –

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस श्‍लोक में बु‍द्धि के साथ एषा और इमाम- ये दो विशेषण देकर यह बात दिखलायी गयी है कि इस अध्‍याय के 38वें श्‍लोक में कही हुई समत्‍व बुद्धि सांख्‍ययोग के अनुसार 11 वें श्‍लोक से लेकर 30 वें श्‍लोक तक कही गयी, उसी को अब कर्मयोग के अनुसार कहना आरम्‍भ करते हैं। इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जहाँ कामनायुक्त कर्म होता है, वहीं अच्‍छे-बुरे फल की सम्‍भावना होती है; इसमें कामना का सर्वथा अभाव है, इसलिये इसमें प्रत्‍यवाय अर्थात् विपरित फल भी नहीं होता।
  2. भाव यह है कि निष्‍काम भाव का परिणाम संसार से उद्धार करना है। अतएव वह अपने परिणाम को सिद्ध किये बिना न तो नष्ट होता है और न उसका कोई दूसरा फल ही हो सकता है, अन्‍त में साधक को पूर्ण निष्‍काम बनाकर उसका उद्धार कर ही देता है।

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