महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 120 श्लोक 21-50

विंशत्यधिकशततम (120) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: विंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-50 का हिन्दी अनुवाद


उस समय कौरवों पर भयंकर मोह छा गया था। कर्ण और दुर्योधन भी बारंबार लंबी सांसे खींच रहे थे। कौरव पितामह भीष्म के इस प्रकार रथ से गिर जाने पर सर्वत्र हाहाकार मच गया। कहीं कोई मर्यादा नहीं रह गयी। भीष्म जी को रणभूमि में गिरा देख आपका वीर पुत्र पुरुषसिंह दु:शासन अपने भाई के भेजने पर अपनी ही सेना से घिरा हुआ बड़े वेग से द्रोणाचार्य की सेना की ओर दौड़ गया। उस समय वह कौरव-सेना को विषाद में डाल रहा था। महाराज! दु:शासन को आते देख समस्त कौरव सैनिक उसे चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये कि देखें, यह क्या कहता है। भरतश्रेष्ठ! दु:शासन ने द्रोणाचार्य से भीष्म के मारे जाने का समाचार बताया। वह अप्रिय बात सुनते ही द्रोणाचार्य मूर्च्छित हो गये। आर्य! सचेत होने पर प्रतापी द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही अपनी सेनाओं को युद्ध से रोक दिया। कौरवों को युद्ध से लौटते देख पाण्डवों ने भी शीघ्रगामी अश्वों पर चढे़ हुए दूतों द्वारा सब ओर आदेश भेजकर अपने सैनिकों का भी युद्ध बंद करा दिया।

बारी-बारी से सब सेनाओं के युद्ध से निवृत्त हो जाने पर सब राजा कवच खोलकर भीष्मस के पास आये। तदनंतर लाखों योद्धा युद्ध से विरत होकर जैसे देवता प्रजापति की सेवा में उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार महात्मा भीष्म के पास आये। वे पाण्डव तथा कौरव बाण शय्या पर सोये हुए भरतश्रेष्ठ भीष्म की सेवा में पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके खडे़ हो गये। पाण्डव तथा कौरव जब प्रणाम करके उनके सामने खडे़ हुए, तब शांतनुनंदन धर्मात्मा भीष्म ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘महाभाग नरेशगण! आप लोगों का स्वागत है। देवोपम महारथियों! आपका स्वागत है। मैं आप लोगों के दर्शन से बहुत संतुष्ट हूँ। इस प्रकार उन सब लोगों से स्वागत भाषण करके अपने लटकते हुए सिर के द्वारा ही बोले- ‘राजाओं! मेरा सिर बहुत लटक रहा है। इसके लिये आप लोग मुझे तकिया दें।' तब राजा लोग तत्कामल बढ़िया, कोमल और महीन वस्त्र के बने हुए बहुत-से तकिये ले आये; परंतु पितामह भीष्म ने उन्हें लेने की इच्छा नहीं की तदनंतर पुरुषसिंह भीष्म ने हंसते हुए से उन राजाओं से कहा- ‘भूमिपालो! ये तकिये वीर शय्या के अनुरूप नहीं हैं।'

इसके बाद वे सम्पूर्ण लोकों के विख्यात महारथी नरश्रेष्ठ महाबाहु पाण्डुपुत्र धनंजय की ओर देखकर इस प्रकार बोले- ‘महाबाहु धनंजय! मेरा शिर लटक रहा है। बेटा! यहाँ इसके अनुरूप जो तकिया तुम्हें ठीक जान पड़े, वह ला दो।' संजय कहते हैं- राजन्! तब अर्जुन ने पितामह भीष्म को प्रणाम करके अपना विशाल धनुष चढ़ा लिया और आंसू भरे नेत्रों से देखकर इस प्रकार कहा- ‘समस्त शस्त्रधारियों में अग्रगण्य कुरुश्रेष्ठ! दुर्जय वीर पितामह! मैं आपका सेवक हूं; आज्ञा दीजिये; क्या सेवा करूं?' तब शांतनुनंदन ने उनसे कहा- ‘तात! मेरा शिर लटक रहा है। कुरुश्रेष्ठ फाल्गुन! तुम मेरे लिये तकिया लगा दो। वीर कुंतीकुमार! इस शय्या के अनुरूप शीघ्र मुझे तकिया दो। तुम्ही उसे देने में समर्थ हों क्योंकि सम्पूर्ण धनुर्धरों में तुम्हारा बहुत ऊंचा स्थान है। तुम क्षत्रिय-धर्म के ज्ञाता तथा बुद्धि और सत्त्व आदि सद्गुणों से सम्पन्न हो।' अर्जुन ने ‘जो आज्ञा’ कहकर इस कार्य के लिये प्रयत्न करना स्वीकार किया और गाण्डीव धनुष ले उसे अभिमन्त्रित करके झुकी हुई गांठ वाले तीन बाणों को धनुष पर रखा।

तत्पश्चात भरतकुल के महातमा महारथी भीष्म की अनुमति ले उन अत्यंत वेगशाली तीन तीखे बाणों द्वारा उनके मस्तक को अनुगृहीत किया (कुछ ऊंचा करके स्थिर कर दिया) सव्यसाची अर्जुन ने उनके अभिप्राय को समझकर जब ठीक तकिया लगा दिया, तब धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले धर्मात्मा भरतश्रेष्ठ भीष्म बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने वह तकिया देने से अर्जुन की प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया और समस्ती भरतवंशियों की ओर देखकर योद्धाओं में श्रेष्ठ, सुहृदों का आनंद बढ़ाने वाले, भरतकुलभूषण, कुंतीपुत्र अर्जुन से इस प्रकार कहा- ‘पाण्डुनंदन! तुमने मेरी शय्या के अनुरूप मुझे तकिया प्रदान किया है। यदि इसके विपरीत तुमने और कोई तकिया दिया होता तो मैं कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता। महाबाहो! अपने धर्म के स्थित रहने वाले क्षत्रिय को युद्ध स्थल में इसी प्रकार बाण शय्या पर शयन करना चाहिये।' अर्जुन से ऐसा कहकर भीष्म ने पाण्डवों के पास खडे़ हुए उन समस्त राजाओं और राजपुत्रों से कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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