महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 121 श्लोक 42-58

एकविंशत्‍यधिकशततम (121) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद</div

तदनंतर पुन: हाथ में लोहे के गोले और त्रिशूल लिये मुँह फैलाये हुए दरद, तंगण, खस, लम्पाक, और कुलिंददेशीय म्लेच्छों ने सात्य्कि पर चारों ओर से पत्थर बरसाने आरम्भ किये; परंतु प्रतीकार करने में निपुण सात्यकि ने अपने नाराचों द्वारा उन सबको छिन्न-भिन्न कर दिया।आकाश में तीखे बाणों द्वारा टूटने-फूटने वाले प्रस्‍तर खण्‍डों के शब्‍द से भयभीत हो रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक युद्ध स्‍थल में इधर-उधर भागने लगे। पत्‍थर के चूर्णों से व्‍याप्‍त हुए मनुष्‍य, हाथी और घोड़े वहाँ ठहर न सके, मानो उन्‍हें भ्रमरों ने डस लिया हो।

जो मरने से बचे थे, वे हाथी भी खून से लथपथ हो रहे थे। उनके कुम्‍भस्‍थल विदीर्ण हो गये थे। राजन! बहुत से हाथियों के सिर क्षत-विक्षत हो गये थे। उनके दांत टूट गये थे, शुण्‍डदण्‍ड खण्डित हो गये थे तथा सैकड़ों गजराजों के सात्‍यकि ने अंग भंग कर दिये थे। माननीय नरेश! सात्‍यकि सिद्धहस्‍त पुरुष की भाँति क्षणभर में पांच सौ योद्धाओं का संहार करके सेना के मध्‍य भाग में विचरने लगे। उस समय घायल हुए हाथी युयुधान के रथ को छोड़कर भाग गये। बाणों से चूर-चूर होने वाले पत्‍थरों की ऐसी ध्‍वनि सुनायी पड़ती थी, मानो कमलदलों पर गिरती हुई जलधाराओं का शब्‍द कानों में पड़ रहा हो। आर्य! जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र का गर्जन बहुत बढ़ जाता है, उसी प्रकार सात्‍यकि के द्वारा पीडित हुई आपकी सेना का महान कोलाहल प्रकट हो रहा था।

उस भयंकर शब्‍द को सुनकर द्रोणाचार्य ने अपने सारथि से कहा- ‘सूत। यह सात्‍वतकुल का महारथी वीर सात्‍यकि रणक्षेत्र में क्रुद्ध होकर कौरव सेना को बारंबार विदीर्ण करता हुआ काल के समान विचर रहा है। सारथे! जहाँ यह भयानक शब्‍द हो रहा है, वहीं मेरे रथ को ले चलो। निश्चय ही युयुधान पाषाणयोधी योद्धाओं से भिड़ गया है, तभी तो ये भागे हुए घोड़े सम्‍पूर्ण रथियों को रणभूमि से बाहर लिये जा रहे हैं। ये रथी शस्त्र और कवच से हीन होकर शस्त्रों के आघात से रुगण हो यत्र-तत्र गिर रहे हैं। इस भयंकर युद्ध में सारथि अपने घोड़ों को काबू में नहीं रख पाते हैं’।

द्रोणाचार्य का यह वचन सुनकर सारथि ने सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोण से इस प्रकार कहा- ‘आयुष्‍मन! कौरव सेना चारों ओर भाग रही है। देखिये, रणक्षेत्र में वे सब योद्धा व्‍यूह-भंग करके इधर-उधर दौड़ रहे हैं। ये पाण्‍डवों सहित पांचाल वीर संगठित हो आपको मार डालने की इच्‍छा से सब ओर से आप पर ही आक्रमण कर रहे हैं। शत्रुदमन! इस समय जो कर्त्तव्‍य प्राप्‍त हो, उस पर ध्‍यान दीजिये; यहीं ठहरना है या अन्‍यत्र जाना है। सात्‍यकि तो बहुत दूर चले गये’। द्रोणाचार्य का सारथि जब इस प्रकार कहर रहा था, उसी समय शिनिनन्‍दन सात्‍यकि बहुतेरे रथियों का संहार करते दिखायी दिये। समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए आपके सैनिक उनके रथ को छोड़कर द्रोणाचार्य की सेना की ओर भाग गये। पहले दु:शासन जिन रथियों के साथ लौटा था, वे स‍ब-के-सब भयभीत होकर द्रोणाचार्य के रथ की ओर भाग गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवपर्व में सात्‍यकिप्रवेशविषयक एक सौ इक्‍कीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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