महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 19 श्लोक 40-58

एकोनविंश (19) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 40-58 का हिन्दी अनुवाद

‘अंगुलित्र और अलंकारों से अलंकृत हाथ फेंके पड़े हैं। वेगवान वीरों की हाथी की सूँड़ के समान मोटी जाँघें कटकर गिरी हैं और जिन पर सुन्दर चूड़ामणि बँधी है वे योद्धाओं के कुण्डल-मण्डित मस्तक भी खण्डित होकर इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। उन सबसे रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही है। ‘देखो, सोने की छोटी-छोटी घंटियों से सुशोभित बहुसंख्यक रथों के कितने ही टुकड़े हो गये हैं और नाना प्रकार के घोड़े लहूलुहान होकर पड़े हैं। अनुकर्ष, उपासंग, पताका, नाना प्रकार के ध्वज, योद्धाओं के सब ओर बिखरे हुए बड़े-बड़े श्वेत शंख तथा कितने ही पर्वताकार हाथी जीभ निकाले सोये पड़े हैं। ‘कहीं विचित्र वैजयन्ती पताकाएँ पड़ी हैं, कहीं हाथी सवार मरकर गिरे हैं और कहीं अनेक कम्बलों से युक्त हाथियों के झूल बिखरे पड़े हैं। इनकी ओर दृष्टिपात करो। ‘हाथी की पीठ पर बिछाये जाने वाले कितने ही विचित्र कम्बल फट जाने के कारण, विचित्र दशा को पहुँच गये हैं। कटकर गिरे हुए नाना प्रकार के घंटे गिरते हुए हाथियों से दबकर चूर-चूर हो गये हैं। ‘देखो, वैदूर्यमणि के बने हुए दण्ड और अंकुश भूतल पर पड़े हैं, घोड़ों के युगापीड तथा रत्नचित्रित कवच इधर-उधर गिरे हैं। ‘घुड़सवारों की ध्वजाओं के अग्रभाग में हाथियों के सुनहरे कंबल उलझ गये हैं। घोड़ों की पीठ पर बिछाये जाने वाले विचित्र, मणिजटित एवं सुवर्णभूषित रंकुमृग के चमड़े के बने हुए झूल और जीन धरती पर पड़े हैं, इन्हें देखो।

‘राजाओं की चूड़ामणियाँ, विचित्र सवर्ण मालाएँ, छत्र, चँवर और व्यजन फेंके पड़े हैं। ‘यहाँ की भूमि राजाओं के मनोहर कुण्डल युक्त, चन्द्रमा और नक्षत्रों के समान कान्तिमान एवं दाढ़ी-मूँछ वाले पूर्ण चन्द्रतुल्य मुखों से ढक गयी है। ‘जैसे तालाब कुमुद, उत्पल और कमलों के समूह से विकसित दिखायी देता है, उसी प्रकार राजाओं के कुमुद और उत्पल-सदृश मुखों से यह रणभूमि सुशोभित हो रही है। ‘तारागणों से जिसकी विचित्र शोभा होती है तथा जहाँ निर्मल चन्द्रमा की चाँदनी छिटकी रहती है, उस आकाश के समान इस रणभूमि की शोभा को देखो। जान पड़ता है कि यह शरद ऋतु के नक्षत्रों की माला से अलंकृत है। ‘अर्जुन! महासमर में ऐसा पराक्रम, जो तूने किया है, या तो तुम्हारे ही योग्य है या स्वर्ग में देवराज इन्द्र के योग्य।

इस प्रकार किरीटधारी अर्जुन को उस युद्धभूमि का दर्शन कराते हुए श्रीकृष्ण ने जाते-जाते ही दुर्योधन की सेना में महान कोलाहल सुना। वहाँ शंखों और दुन्दुभी की ध्वनि छा रही थी। भेरी और पणव आदि बाजे बज रहे थे। रथ के घोड़ों और हाथियों के हींसने एवं चिंघाड़ने के तथा शस्त्रों के परस्पर टकराने के भयानक शब्द भी सुनायी पड़ते थे। तब श्रीकृष्ण ने वायु के समान वेगशाली अश्वों द्वारा उस सेना में प्रवेश करके देखा कि पाण्ड्य नरेश ने आपकी सेना को अत्यंत पीड़ित कर दिया है; यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। जैसे यमराज आयुरहित प्राणियों के प्राण हर लेते हैं, उसी प्रकार धनुर्धरों में श्रेष्ठ पाण्ड्य युद्धस्थल में नाना प्रकार के बाणों द्वारा शत्रु समूहों का नाश कर रहे हैं। प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ पाण्ड्य अपने तीखे बाणों से हाथी, घोड़े और मनुष्यों के शरीरों को विदीर्ण करके उन्हें देह और प्राणों से शून्य एवं धराशायी कर देते थे। जैसे इन्द्र असुरों का संहार करते हैं, उसी प्रकार पाण्ड्य-नरेश शत्रु वीरों द्वारा चलाये गये नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को अपने बाणों द्वारा नष्ट करके उन शत्रुओं का वध कर डालते थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में संकुल युद्ध विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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