महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 16 श्लोक 37-41

षोडश (16) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 37-41 का हिन्दी अनुवाद

महाराज! अश्वत्थामा के धनुष से छूटकर सब ओर गिरने वाले उन बाणों द्वारा रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ढक गये। तत्पश्चात प्रतापी भरद्वाज कुल नन्दन अश्वत्थामा ने सैंकड़ों तीखे बाणों से रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन दानों को निश्चेष्ट कर दिया। चराचर की रक्षा करने वाले उन दोनों महापुरुषों को बाणों द्वारा आच्छादित देख समसत स्थावर-जंगम जगत में हाहाकार मच गया। सिद्ध और चारणों के समुदाय सब ओर से वहाँ आ पहुँचे और बोले-आज तीनों लोकों का मंगल हो। राजन! मैंने इससे पहले अश्वत्थामा का वैसा पराक्रम नहीं देखा था, जैसा कि रणभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित करते समय प्रकट हुआ था। नरेश्वर! रणभूमि में द्रोणकुमार के धनुष की टंकार बड़े-बड़े रथियों को भयभीत करने वाली थी। दहाड़ते हुए सिंह के समान उसके शब्द को मैंने बहुत बार सुना था। युद्ध में विचरते हुए अश्वत्थामा के धनुष की प्रत्यंचा बायें-दायें बाण छोड़ते समय बादल में बिजली के समान चमकती दिखायी देती थी। शीघ्रता करने और दृढ़ता पूर्वक हाथ चलाने वाले पाण्डुपुत्र धनंजय उस समय भारी मोह में पड़कर केवल देखते रह गये थे। उन्हें युद्ध में ऐसा मालूम होता था कि अश्वत्थामा ने मेरा पराक्रम हर लिया है। राजन! उस समय समरांगण में वैसा पराक्रम करते हुए द्रोणकुमार अश्वत्थामा का शरीर ऐसा डरावना हो गया था कि उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। पिनाकपाणि भगवान रुद्र का जैसा रूप दिखाई देता है, वैसा ही उसका भी था।

प्रजानाथ! जब वहाँ द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्ती कुमार का पराक्रम घटने लगा, तब श्रीकृष्ण को बड़ा रोष हुआ। राजन! वे क्रोध पूर्वक लंबी साँस खींचते हुए संग्राम भूमि में अश्वत्थामा की ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उसे अपनी दृष्टि द्वारा दग्ध कर देंगे। अर्जुन की ओर भी वे बारंबार दृष्टिपात करने लगे। फिर कुपित हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रेमपूर्वक कहा। श्रीभगवान बोले-पार्थ! भरतनन्दन! मैं इस युद्ध में तुम्हारे अंदर यह अत्यंत अद्भुत परिवर्तन देख रहा हूँ कि आज द्रोणकुमार रणभूमि में तुमसे आगे बढ़ा जा रहा है। क्या तुम्हारे हाथ में गाण्डीव धनुष है? या तुमारी मुट्ठी ढीली पड़ कई है? क्या तुम्हारी दोनों भुजाओं में पहले के समान ही बल और पराक्रम है? क्योंकि इस समय संग्राम में द्रोणपुत्र को में तुमसे बढ़ा-चढ़ा देख रहा हूँ। भरतश्रेष्ठ! यह मेरे गुरु का पुत्र है, ऐसा समझकर इसे सम्मान देते हुए तुम इसकी उपेक्षा न करो। पार्थ! यह उपेक्षा का अवसर नहीं है। (भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन तथा) अश्वत्थामा के उस सिंहनाद को सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- 'माधव! देखिये तो सही गुरुपुत्र अश्वत्थामा मेरे प्रति कैसी दुष्टता कर रहा है? ‘यह अपने बाणों के घेरे में डालकर हम दोनों को मारा गया समझता है। मैं अभी अपनी शिक्षा और बल से इसके इस मनोरथ को नष्ट किये देता हूँ।'

ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ अर्जुन ने अश्वत्थामा के चलाये हुए उन बाणों से प्रत्येक के तीन-तीन टुकड़े करके उन सबको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे हवा कुहरे को उड़ा देती है। तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन ने पुनः घोड़े, सारथि, रथ, हाथी, पैदल समूह और ध्वजों सहित संशप्तक-सैनिकों को अपने भयंकर बाणों द्वारा बींध डाला। उस समय वहाँ जो-जो मनुष्य जिस-जिस रूप में दिखाई देते थे, वे-वे स्वयं ही अपने आपको बाणों से व्याप्त मानने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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