महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 34-54

अष्टम (8) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 34-54 का हिन्दी अनुवाद

भारत! प्राचीन राजर्षियों के मार्ग का अनुसरण करो। तात युधिष्ठिर! तुम सदा दाम, तपस्या और सत्य में ही सलग्न रहो राजा युधिष्ठिर! क्षमा इन्द्रियसंयम, सत्य, अहिंसा तथा अद्भुत लोक-ये सब तुम में प्रतिष्ठत है। महाराज! तुम कोमल, उदार, ब्राहाण भक्त, दानी, तथा धर्मपरायण हो। संसार जिनका साक्षी है, ऐसे बहुत से धर्म तम्हें ज्ञात हैं। तात! परंतप! तुम्हें इस सम्पूर्ण जगत् का तत्त्व ज्ञात है। भरत श्रैष्ठ नरेश! तुम्हें इस महन संकट से पार हो गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है। राजेन्द्र! तुम धर्मात्मा एवं धर्म की निधि हो। राजन! तुमने भाइयों सहित अपनी दुष्कर प्रतिज्ञा पूरी कर ली है और इस अवस्था में तुम्हें देख रहा हूँ यह मेरा अहो भाग्य है।

वैशम्पायनजी कहते हैं- तदनन्तर राजा शल्य ने दुर्योधन के मिलने, सेवा शुश्रषा करने और उसे अपने वरदान देने की सारी बातें कह सुनायी। युधिष्ठिर बोले-वीर महाराज! आपने प्रसन्नचित्‍त होकर जो दुर्योधन को उसकी सहायता का वचन दे दिया, वह अच्छा ही किया। परन्तु पृथ्वीपते! आपका कल्याण हो। मैं आपके द्वारा अपना भी एक काम कराना चहाता हूँ। साधू शिरोमणे! वह न करने योग्य होने पर भी मेरी ओर देखते हुए आपको अवश्य करना चाहिये। वीरवर! सुनिये; मैं वह कार्य आपको बता रहा हूँ। महाराज! आप इस भूतल पर संग्राम में सारथि का काम करने के लिए वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण समान माने गये हैं। नृपशिरोमणे! जब कर्ण और अर्जुन के दैरथयुद्ध का अवसर प्राप्त होगा, उस समस भी आपको ही कर्ण के सारथि का काम करना पड़ेगा; इसमे तनिक संशय नहीं है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो उस युद्ध में आप को अर्जुन की रक्षा करनी होगी। आपका कार्य इतना ही होगा कि आप कर्ण का उत्साह भंग करते रहें। वही कर्ण से हमें विजय दिलाने वाला होगा। मामा जी! मेरे लिये यह न करने योग्य भी कार्य करें। शल्य बोले- पाण्डुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी बात सुनो! युद्ध में महामना सूतपुत्र कर्ण के तेज और उत्‍साह को नष्ट करने के लिये तुम जो मुझसे अनुरोध करते हो, वह ठीक नहीं है। यह निश्चय है कि मैं उस युद्ध में उसका सारथि होऊँगा। स्वयं कर्ण भी सदा मुझे सारथि कर्म में भगवान श्रीकृष्ण के समान समझता है। कुरुक्षेष्ठ! जब कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध की इच्छा करेगा, उस समय मैं अवश्य ही प्रतिकूल अहितकर वचन बोलूंगा, जिससे उसका अभिमान और तेज नष्ट हो जायेगा और युद्ध में सुखपूर्वक मारा जा सकेगा। पाण्डुनन्दन! मैं तुमसे यह सत्य कहता हूँ। तात! तुम मुझसे जो कुछ कह रहे हो, वह अवश्य पूर्ण करूँगा। इसके सिवा और भी जो कुछ मुझसे हो सकेगा, तुम्हारा वह प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। महातेजस्वी वीरवर युधिष्ठिर! तुमने द्यूतसभा में द्रौपदी के साथ जो दुःख उठाया है, सूतपूत्र कर्ण ने तुम्हें जो कठोर बातें सुनायी हैं तथा पूर्वकाल में दमयन्ती ने जैसे अशुभ (दुःख) भोगा था, उसी प्रकार द्रौपदी ने जटासुर तथा कीचक से जो महान क्लेश प्राप्त किया है, यह सभी दुःख भविष्य में तुम्हारे लिये सुख के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। इसके लिये तुम्हें खेद नहीं करना चाहिये; क्योंकि विधाता का विधान अति प्रबल होता है। युधिष्ठिर! महात्मा पुरुष भी समय-समय पर दुःख पाते हैं। पृथ्वीपते! देवताओं ने भी बहुत दुःख उठाये हैं। भरतवंशी नरेश! सुना जाता है कि पत्नी सहित महामना देवराज इन्द्र ने महान दुःख भोगा है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योग पर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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