महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 75 श्लोक 11-23

पंचसप्तितम (75) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत उद्योग पर्व: पंचसप्तितम अध्याय: श्लोक 11-23 का हिन्दी अनुवाद


  • भीमसेन! मैंने बार-बार तुम्हें भौहें टेढ़ी करके दोनों ओठों को चबाते हुए देखा है। यह सब तुम्हारे क्रोध की करतूत है। (11)
  • तुम अपने भाइयों के बीच में सत्य की शपथ खाकर बार-बार गदा छूते हुए कहते थे- 'जैसे सूर्यदेव पूर्व दिशा में उदित होते हुए अपने तेजोमंडल को प्रकट करते हुए दिखाई देते हैं और पश्चिम दिशा में वे ही अंशुमाली अस्ताचल को जाकर निश्चितरूप से मेरुपर्वत की परिक्रमा करते हैं, उनके इस नियम में कभी कोई अंतर नहीं पड़ता; उसी प्रकार मैं यह सच कहता हूँ कि अमर्षशील दुर्योधन के पास जाकर अपनी गदा से उसके प्राण ले लूँगा। मेरे इस कथन में कभी कोई अंतर नहीं पड़ सकता।' परंतप! ऐसी प्रतिज्ञा करने वाले तुम जैसे वीर शिरोमणि की बुद्धि आज शांति-स्थापन में लग रही है; यह आश्चर्य की बात है। (12-14)
  • अहो! युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर पहले से युद्ध की अभिलाषा रखने वाले लोगों के विचार भी इतने बदल जाते हैं कि वे विपरीत सोचने लगते हैं। भीमसेन! जान पड़ता है, इसलिए तुम्हें भी युद्ध से भय होने लगा है। (15)
  • कुंतीनंदन! बड़े विस्मय की बात है कि तुम्हें सोते और जगत में उल्टे परिणाम की सूचना देने वाले अपशकुन दिखाई देते हैं। इसी से तुम शांति की इच्छा प्रकट कर रहे हो। (16)
  • अहो! कायर और नपुंसक की भाँति इस समय तुम अपने में कुछ भी पुरुषार्थ नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर मोह छा गया है, जिससे तुम्हारी मानसिक दशा बिगड़ गई है। (17)
  • जान पड़ता है कि तुम्हारा हृदय काँपता है, मन शिथिल होता जाता है, तुम्हारी जांघे मानो अकड़ गयी हैं; इसलिए तुम शांति चाहते हो। (18)
  • पार्थ! कहते हैं कि मनुष्य का चित्त सदा एक निश्चय पर अटल नहीं रहता। वह हवा के वेग से हिलती हुई सेमल के फल की गांठ के समान डांवाडोल रहता है। (19)
  • यदि गायें मनुष्य की बोली बोलें, तो वह जैसी बिगड़ी हुई होंगी, उसी प्रकार तुम्हारी यह बुद्धि विकृत होकर अगाध समुद्र में नाव के बिना डूबने वाले मनुष्य की भाँति पांडवों के मन को चिंतामग्न किए देती है। (20)
  • भीमसेन! तुम जो बात कर रहे हो, वह तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है। जैसे पर्वत का चलना आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा किया हुआ यह शांति-प्रस्ताव मुझे महान आश्चर्य में डाल रहा है। (21)
  • भारत! तुम अपने कर्मों को देखकर और जिस कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है, उस पर भी दृष्टिपात करके खड़े हो जाओ। वीरवर! विषाद न करो और अपने क्षत्रियोचित्त कर्म पर डट जाओ। (22)
  • शत्रुदमन! तुम्हारे चित्त में जो ग्लानि उत्पन्न हुई है, यह तुम्हारे जैसे शूरवीर के योग्य कदापि नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय जिसे ओज एवं पराक्रम से प्राप्त नहीं करता, उसे अपने उपयोग में नहीं लाता। (23)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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