महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 87-106

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 87-106 का हिन्दी अनुवाद

ये छ: प्राय: सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्‍मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्‍त हो जाने पर शिष्‍य आचार्य का, वि‍वाहित बेटे माता का, काम वासना की शांति हो जाने पर पुरुष स्‍त्री का, कृतकार्य मनुष्‍य सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटने के बाद वेद्य का[1] राजन! नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्‍छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निर्भय होकर र‍हना- ये छ: मनुष्‍य लोक के सुख हैं। ईर्ष्‍या करने वाला, घृणा करने वाला, अंसतोषी, क्रोधी, सदा शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्‍य पर जीवन-निर्वाह करने वाला- ये छ: सदा दुखी रहते हैं। स्‍त्रीविषयक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्‍यंत कठोर दण्‍ड देना और धन का दुरुपयोग करना- ये सात दु:खदायी दोष राजा को सदा त्‍याग देने चाहिये। इनसे दृढ़मूल राजा भी प्राय: नष्‍ट हो जाते हैं। विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्‍य के आठ पूर्वचिन्‍हृ हैं- प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोध का पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निंदा में आनंद मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्‍मरण नहीं करता तथा कुछ मांगने पर उनमें दोष निकालने लगता है।

इन सब दोषों को बुद्धिमान मनुष्‍य समझे और समझकर त्‍याग दे। भारत! मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्‍न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्‍नति, अभीष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति और जन-समाज में सम्‍मान- ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं। बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह,शास्‍त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता- ये आठ गुण पुरुष की ख्‍याति बढ़ा देते हैं। जो विद्वान पुरुष [2] नौ दरवाजे वाले, तीन [3] खंभो वाले, पांच (ज्ञानेन्द्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को तत्त्व से जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है। महाराज धृतराष्‍ट्र! दस प्रकार के लोग धर्म के तत्त्व को नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी- ये दस हैं। अत: इन सब लोगों में विद्वान पुरुष आसक्त न होवे। इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लाद ने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था।

नीतिज्ञ लोग उस पुरातन इतिहास का उदाहरण देते हैं। जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है और सुपात्र- को धन देता है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा करने वाला है, उस (के व्यवहार और वचनों) का सब लोग प्रमाण मानते हैं। जो मनुष्‍यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है उन्हीं को जो दण्‍ड देता है, जो दण्‍ड देने की न्युनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजा की सेवा में सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है। जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रु के साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसंद नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.‘मुहूर्त’ शब्‍द का अर्थ दो घड़ी होता है। एक घड़ी २४ मिनट की मानी जाती है।
  2. आँख, कान आदि
  3. सत्त्व, रज तथा तमरूपी

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