महाभारत आदि पर्व अध्याय 49 श्लोक 19-31

एकोनपंचाशत्तम (49) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद


जनमेजय ने पूछा- मन्त्रियों! हमारे इस कुल में कभी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जो प्रजा का प्रिय करने वाला तथा सब लोगों का प्रेमपात्र न रहा हो। विशेषतः महापुरुषों के आचार में प्रवृत्त रहने वाले हमारे प्रपितामह पाण्डवों के सदाचार को देखकर प्रायः सभी धर्म परायण ही होंगे। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे वैसे धर्मात्मा पिता की मृत्यु किस प्रकार हुई? आप लोग मुझसे इसका यथावत वर्णन करें। मैं इस विषय में सब बातें ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ।

उग्रश्रवा जी कहते हैं- शौनक! राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर उन मन्त्रियों ने महाराज से सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बताया; क्योंकि वे सभी राजा का प्रिय चाहने वाले और हितैषी थे। मन्त्री बोले- राजन! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तुम्हारे पिता भूपाल परीक्षित का सदा महाबाहु पाण्डु की भाँति हिंसक पशुओं को मारने का स्वभाव था और युद्ध में उन्हीं की भाँति सम्पूर्ण धर्नुधर वीरों में श्रेष्ठ सिद्ध होते थे। एक दिन की बात है, वे सम्पूर्ण राजकार्य का भार हम लोगों पर रखकर वन में शिकार खेलने के लिये गये। वहाँ उन्होंने पंखयुक्त बाण से एक हिंसक पशु को बींध डाला। बींधकर तुरंत ही गहन वन में उसका पीछा किया। वे तलवार बाँधे पैदल ही चल रहे थे। उनके पास बाणों से भरा हुआ विशाल तूणीर था। वह घायल पशु उस घने वन में कहीं छिप गया। तुम्हारे पिता बहुत खोजने पर भी उसे पा न सके।

प्रौढ़ अवस्था, साठ वर्ष की आयु और बुढ़ापे का संयोग इन सबके कारण वे बहुत थक गये थे। उस विशाल वन में उन्हें भूख सताने लगी। इसी दशा में महाराज ने वहाँ मुनिश्रेष्ठ शमीक को देखा। राजेन्द्र परीक्षित ने उनसे मृग का पता पूछा; किंतु वे मुनि उस समय मौनव्रत के पालन में संलग्न थे। उनके पूछने पर भी महर्षि शमीक उस समय कुछ न बोले। वे काठ की भाँति चुपचाप, निश्चेष्ट एवं अविचल भाव से स्थित थे। यह देख भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल हुए राजा परीक्षित को उन मौनव्रतधारी शान्त महर्षि पर तत्काल क्रोध आ गया। राजा को यह पता नहीं था कि महर्षि मौनव्रतधारी हैं; अतः क्रोध में भरे हुए आपके पिता ने उनका तिरस्कार कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने धनुष की नोक से पृथ्वी पर पड़े हुए एक मृत सर्प को उठाकर उन शुद्धात्मा महर्षि के कंधे पर डाल दिया। किंतु उन मेधावी मुनि ने इसके लिये उन्हें भला या बुरा कुछ नहीं कहा। वे क्रोध रहित हो कंधे पर मरा सर्प लिये हुए पूर्ववत शान्तभाव से बैंठे रहे।

इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में परीक्षित-चरित्रविषयक उन्चासवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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