त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद
अत: आपके बड़े भाई ने वहाँ धर्म की रक्षा के लिये केवल द्रौपदी को निमित्त बनाकर यह एक-दूसरे के प्रवास का नियम बनाया है। यहाँ आपका धर्म दूषित नहीं होता। विशाल नेत्रों वाले अर्जुन! आपको आर्त प्राणियों की रक्षा करनी चाहिये। मेरी रक्षा करने से आपके धर्म का लोप नहीं होगा। यदि आपके इस धर्म का थोड़ा-सा व्यतिक्रम हो भी जाय तो भी मुझे प्राणदान देने से तो आपको महान् धर्म होगा ही। अत: मेरे स्वामी कुन्तीकुमार अर्जुन! मैं आपकी भक्त हूं, अत: स्वीकार कीजिये; यह आर्तरक्षण सत्पुरुषों का मत है। महाबाहो! यदि आप मेरी प्रार्थना पूर्ण नहीं करेंगे तो निश्चय जानिये, मैं मर जाऊंगी। अत: मुझे प्राणदान देकर अत्यन्त उत्तम धर्म का अनुष्ठान कीजिये। पुरुषोत्तम! आज मैं आपकी शरण में आयी हूँ। कुन्तीकुमार! आप प्रतिदिन न जाने कितने दीनों और अनाथों की रक्षा करते हैं। मैं भी यह आशा लेकर शरण में आयी हूँ और बार-बार दुखी होकर रोती-गिड़गिड़ाती हूँ। मैं आपके प्रति अनुरक्त हूँ और आपसे समागम की याचना करती हूँ। अत: मेरा प्रिय मनोरथ पूर्ण कीजिये। मुझे आत्मदान देकर मेरी कामना सफल कीजिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! नागराज की कन्या उलूपी के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार अर्जुन ने धर्म को ही सामने रखकर वह सब कार्य पूर्ण किया। प्रतापी अर्जुन ने नागराज के घर में ही वह रात्रि व्यतीत की। फिर सुर्योदय होने पर कौरव्य के भवन से ऊपर को उठे। उलूपी के साथ अर्जुन फिर गंगाद्वार में आ पहुँचे। साध्वी उलूपी उन्हें वहाँ छोड़कर पुन: अपने घर को लौट गयी। भारत! जाते समय उसने अर्जुन को यह वर दिया कि आप जल में सर्वत्र अजेय होंगे और सभी जलचर आपके वश में रहेंगें, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार अर्जुन ने उलूपी के गर्भ से अत्यन्त मनोहर तथा महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न इरावान नामक महाभाग पुत्र उत्पन्न किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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