महाभारत आदि पर्व अध्याय 134 श्लोक 16-32

चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद


विदुर ने कहा- महाराज! ये पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन कवच बांध कर रंगभूमि में उतरे हैं। इसी कारण यह सारी आवाज हो रही है। धृतराष्ट्र बोले- महामते! कुन्‍ती रूपी अरणि से प्रकट हुए इन तीनों पाण्‍डव रूपी अग्नियों से मैं धन्‍य हो गया। इन तीनों के द्वारा मैं सवर्था अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार आनन्‍दातिरेक से मुखरित हुआ वह रंगमण्‍डप जब किसी तरह कुछ शान्‍त हुआ तब अर्जुन ने आचार्य को अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखानी आरम्‍भ की। उन्‍होंने पहले आग्नेयास्त्र से आग पैदा की, फि‍र वारुणास्त्र से जल उत्‍पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्‍यास्त्र से आंधी चला दी और पर्जन्‍यास्त्र से बादल पैदा कर दिये। उन्‍होंने भौमास्त्र से पृथ्‍वी से पार्वतास्त्र से पर्वतों को उत्‍पन्न कर दिया; फि‍र अन्‍तर्धानास्त्र के द्वारा वे स्‍वयं अदृश्‍य हो गये। वे क्षणभर में बहुत लंबे हो जाते औ रक्षणभर में ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षण में रथ के धुरे पर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथ की बीच में दिखाई देते। फि‍र पलक मारते-मारते पृथ्‍वी पर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते। अपने गुरु प्रिय शिष्‍य अर्जुन ने बड़ी फुर्ती और खूबसूरती के साथ सुकमार, सूक्ष्‍य और भारी निशाने को भी बिना हिलाये-डुलाऐ नाना प्रकार के बाणों द्वारा बींध दिया। रंगभूमि में लोहे का बना हुआ सूअर इस प्रकार रखा था कि वह सब ओर चक्‍कर लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअर के मुख में अर्जुन ने एक ही साथ एक बाण की भाँति पांच बाण मारे। वे पांचों बाण एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। एक जगह गाय का सींग एक रस्‍सी में लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महापराक्रमी अर्जुन ने उस सींग के छेद में लगातार इक्‍कीस बाण गड़ा दिये।

निष्‍पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्‍होंने बड़ा भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष और गदा आदि के भी शस्त्र कुशल अर्जुन ने अनेक पैंतरे और हाथ दिखलाये। भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखाने का अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, मनुष्‍यों का कोलाहल बाजे-गाजे का शब्‍द जब शांत होने लगा, उसी समय दरवाजे की ओर से किसी का अपनी भुजाओं पर ताल ठोकने का भारी शब्‍द सुनायी पड़ा; मानों वज्र आपस में टकरा रहे हों। वह शब्‍द किसी वीर के महात्‍म्‍य तथा बल का सूचक था। उसे सुनकर लोग कहने लगे ‘कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्‍वी तो नहीं विदीर्ण हो गयी! अथवा जल की धारा से परिपूर्ण घनीभूत बादलों की गंभीर गर्जना से आकाश मण्‍डल तो नहीं गूंज रहा है?’ राजन्! उस रंगमण्‍डप में बैठे हुए लोगों के मन में क्षणभर में उपर्युक्त विचार आने लगे। उस समय सभी दर्शक दरवाजे की ओर मुंह घुमाकर देखने लगे। इधर कुन्‍तीकुमार पांचों भाइयों से घिरे हुए आचार्य द्रोण पांच तारों वाले हस्‍त नक्षत्र से संयुक्त चन्‍द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। शत्रुहन्‍ता बलवान दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्‍वत्‍थामा सहित उसके सौ भाइयों ने आकर उसे चारों ओर से घेर लिया। हाथों में आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयों से घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकाल में दानव संहार के समय देवताओं से घिरे देवराज इन्‍द्र के समान शोभा पाने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में अस्त्रदर्शनविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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