महाभारत विराट पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-14

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

राजा विराट द्वारा पाण्डवों का सम्मान, युधिष्ठिर द्वारा राजा का अभिनन्दन तथा विराटनगर में राजा की विजय घोषणा

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! युधिटर के ऐसा कहने पर सुशर्मा ने लज्जित होकर अपना मुँह नीचे कर लिया और बन्धन से मुक्त हो राजा विराट के पास जा उन्हें प्रणाम करके अपने देश को प्रस्थान किया। इस प्रकार युशर्मा को मुक्त करके शत्रुओं का संहार करने वाले, अपने बाहुबल से सम्पन्न, लज्जाशील और संयम पूर्वक व्रतपालन में तत्पर रहने वाले वे पाण्डव उस युद्ध के मुहाने पर ही रात भर सुख से रहे। तदननतर राजा विराट ने अतिमानुष (मानवीय शक्ति से परे) पराक्रम करने वाले महारथी कुन्तीपुत्रों का धन और मानदान द्वारा सत्कार किया।

विराट ने कहा- युद्ध में शत्रुओ का संहार करने वाले वीरों! ये रत्न आर धन जैसे मेरे हैं, वैसे ही तुम लोगों के भी। तुम सब लोग यहाँ सुखपूर्वक रहा और जिस कार्य में तुम लोगों की रुचि हो, वह करो। मैं तुम बको वस्त्राभूषण से विभूषित कन्याएँ, नाना प्रकार के रत्न, धन तथा और भी मनोवांछित पदार्थ देता हूँ। आज मैं तुम लोगों के ही पराक्रम से यहाँ शत्रु के पंजे से कुशलपूर्वक छूटकरआया हूँ। अतः तुम लोग मत्स्य देश के स्वामी ही हो।

वैशम्पायनजी कहते हैं- इस प्रकार कहने वाले मत्स्यराज से युधिष्ठिर आदि सभी कुरुवंशी पृथक्-पृथक् हाथ जोड़कर बोले- ‘महाराज! आपका कहना ठीक है। हम आपके सम्पूर्ण वचनों का अभिनन्दन करते हैं, किंतु हम लोग इतने से ही संतुष्ट हैं कि आप आज शत्रुओं से मुक्त हो गये’। तब राजाओं में श्रेष्ठ मत्ज्ञसनरेश महाबाहु विराट ने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर पुनः युधिष्ठिर से कहा- -कंकजी! आइये, मैं आपका अभिषेक करूँगा। आप ही हमारे मत्स्यदेश के राजा बनें। ‘इस पृथ्वी पर दुर्लभ जो और भी प्रिय तथा मनोवांछित पदार्थ होगा, वह भी मैं आपको दूँगा। आप तो हमारा सब कुद पाने के अधिकारी हैं।

‘व्याघ्रपदगोत्र में उत्पन्न विप्रवर! मेरे रत्न, गौएँ, सुवर्ण, मणि तथा मोती भी आपके अर्पण हैं। आपको हमारा सब प्रकार से नमस्कार है। ‘आपके कारण ही आज मैं अपने राज्य और संतान का मुख देख पाऊँगा; क्योंकि पकड़े जाने पर मैं भयभीत हो गया था, किंतु आपके पराक्रम से शत्रु के अधीन नहीं रहा’। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने मत्स्यराज से पुनः कहा- ‘राजन्! आप बड़ी मनोहर बात कह रहे हैं। मैं आपके इस वचन का अभिनन्दन करता हूँ आप निरन्तर दयाभाव रखते हुए सर्वथा परम सुखी हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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