चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र के प्रति विदुरजी के नीतियुक्त वचन धृतराष्ट्र बोले-तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभी तक जाग रहा हूँ; तुम मेरे करने योग्य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्योंकि हम लोगों में तुम्हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। उदारचित्त विदुर! तुम अपनी बुद्धि से विचार कर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो। जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्याणकारी समझो, वह सब अवश्य बताओ। विद्वन मेरे मन में अनिष्ट की आशंका बनी रहती है, इसलिये मैं सर्वत्र अनिष्ट ही देखता हूँ, अत: व्याकुल हृदय से मैं तुमसे पूछ रहा हूँ- अजातशत्रु युधिष्ठिर क्या चाहते हैं, सो सब ठीक-ठीक बताओ। विदुरजी ने कहा-राजन! मनुष्य को चाहिये कि वह जिसकी पराजय नहीं चाहता, उसको बिना पूछे भी अच्छी अथवा बुरी, कल्याण करने वाली या अनिष्ट करने वाली- जो भी बात हो, बता दे इसलिये राजन! जिससे समस्त कौरवों का हित हो, मैं वही बात आपसे कहूँगा। मैं जो कल्याणकारी एवं धर्मयुक्त वचन कह रहा हूँ, उन्हें आप ध्यान देकर सुनें। भारत! असत उपायों[1] आदि का प्रयोग करके जो कपटपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं, उनमें आप मन मत लगाइये। इसी प्रकार अच्छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो बुद्धिमान पुरुष को उसके लिये मन में ग्लानि नहीं करनी चाहिये। किसी प्रयोजन से किये गये कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचार कर काम करना चाहिये, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिये। धीर मनुष्य को उचित है कि पहले कर्मों का प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्नति का विचार करके फिर काम आरम्भ करे या न करे। राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्ड आदि की मात्रा को नहीं जानता, वह राज्य पर स्थिर नही रह सकता। जो इनके प्रमाणों को उपर्युक्त प्रकार से ठीक-ठीक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्य को प्राप्त करता है। ‘अब तो राज्य प्राप्त हो हो ही गया’-ऐसा समझकर अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये। उद्दण्डता सम्पत्ति को उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे सुंदर रूप को बुढ़ापा। जैसे मछली बढ़िया खाद्य वस्तु से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती (अतएव मर जाती है)। अत: अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को वही वस्तु खानी(या ग्रहण करनी) चाहिये,[2] जो खाने योग्य हो तथा खायी जा सके, खाने (या ग्रहण करने ) पर पच सके और पच जाने पर हितकारी हो। जो पेड़ से कच्चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलों से रस तो पाता नहीं, परंतु उस वृक्ष के बीज का नाश हो जाता है। परंतु जो समय पर पके हुए फल को ग्रहण करता है, वह फल से रस पाता है और उस बीज से पुन: फल प्राप्त करता है। जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिये बिना ही उनसे धन ले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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