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− | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32 | + | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32]] |
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
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− | + | एकान्त में या जन-समुदाय में जहाँ भी वह मिलेगा, [[कीचक]] को मैं कुचल डालूँगा और यदि मत्स्यदेश के लोग उसकी ओर से युद्ध करेंगे तो उन्हें भी निश्चय ही मार डालूँगा। तदनन्तर [[दुर्योधन]] को मारकर समूची पृथ्वी का राज्य ले लूँगा। भले ही कुन्तीपुत्र [[युधिष्ठिर]] यहाँ बैठकर मत्स्यराज की उपासना करते रहें। | |
− | + | [[द्रौपदी]] ने कहा- प्रभो! तुम वही करो, जिससे मेरे लिये तुम्हें सत्य का परित्याग न करना पड़े। कुन्तीनन्दन! तुम अपने को गुप्त रखकर ही उस कीचक का संहार करो। | |
− | + | [[भीम|भीमसेन]] बोले- ठीक है, भीरु! तुम जैसा कहती हो, वही करूँगा। आज मैं उस कीचक को उसके भाई बन्धुओं सहित मार डालूँगा। अनिन्दिते! गजराज जैसे बेल के फल पर पैर रखकर उसे कुचल दे, उसी प्रकार मैं अँधेरी रात में उससे अदृश्य रहकर तुझ जैसी अलभ्य नारी को प्राप्त करने की इच्छा वाले दुरात्मा कीचक के मस्तक को कुचल डालूँगा। | |
− | + | वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर भीमसेन रात के समय पहले ही जाकर नृत्यशाला में छिपकर बैठ गये और कीचक की इस प्रकार प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह अदृश्य रहकर मृग की घात में बैठा रहता है। इधर कीचक भी इच्छानुसार वस्त्राभूषणों से सज-धजकर द्रौपदी के पास समागम की अभिलाषा से उसी समय नृत्यशाला के समीप आया। उस गृह को संकेत स्थान मानकर उसने भीतर प्रवेश किया। वह विशाल भवन सब ओर से अन्धकार से आच्छन्न हो रहा था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही आकर एकान्त में एक शय्या पर लेटे हुए थे। खोटी बुद्धि वाला सूतपुत्र कीचक वहाँ पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। उस समय [[भीम|भीमसेन]] कीचक द्वारा द्रौपदी के अपमान के कारण क्रोध से जल रहे थे। उनके पास पहुँचते ही काममोहित कीचक हर्ष से उन्तत्त-चित्त हो मुसकराते हुए बोला- ‘सुभ्रु! मैंने अनेक प्रकार का जो धन संचित किया है, वह सब तुम्हें भेंट कर दिया तथा मेरा जो धन रत्ननादि से सम्पन्न, सैंकड़ों दासी आदि उपकरणों से युक्त, रूपलावण्यवती युवतियों से अलंकृत तथा क्रीड़ा-विलास से सुशोभित गृह एवं अन्तःपुर है, वह सब तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं सहसा तुम्हारे पास चला आया हूँ। मेरे घर की स्त्रियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती हैं और कहती हैं- ‘आपके समान सुन्दर वस्त्रधारी और दर्शनीय दूसरा कोई पुरुष नहीं है’। | |
− | + | भीमसेन बोले- सौभाग्य की बात है कि तुम ऐसे दर्शनीय हो और यह भी भाग्य की बात है कि तुम स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे हो। परंतु ऐसा कोमल स्पर्श भी तुम्हें पहले कभी नहीं प्राप्त हुआ होगा। स्पर्श को तो तुम खूब पहचानते हो। इस कला में बड़े चतुर हो। कामधर्म के विलक्षण ज्ञाता जान पड़ते हो। इस संसार में स्त्रियो को प्रसन्न करने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है। | |
+ | वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! [[कीचक]] से ऐसा कहकर भयंकर पराक्रमी कुन्तीपुत्र महाबाहु [[भीम|भीमसेन]] सहसा उछलकर खड़े हो गये और हँसते हुए इस प्रकार बोले- ‘अरे! तू पर्वत के समान विशालकाय है, तो भी जैसे सिंह महान् गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझ पापी हो पृथ्वी पर पटककर घसीटूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी। | ||
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 51-68|]] | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 51-68|]] |
15:01, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
द्वाविंश (22) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद
द्रौपदी ने कहा- प्रभो! तुम वही करो, जिससे मेरे लिये तुम्हें सत्य का परित्याग न करना पड़े। कुन्तीनन्दन! तुम अपने को गुप्त रखकर ही उस कीचक का संहार करो। भीमसेन बोले- ठीक है, भीरु! तुम जैसा कहती हो, वही करूँगा। आज मैं उस कीचक को उसके भाई बन्धुओं सहित मार डालूँगा। अनिन्दिते! गजराज जैसे बेल के फल पर पैर रखकर उसे कुचल दे, उसी प्रकार मैं अँधेरी रात में उससे अदृश्य रहकर तुझ जैसी अलभ्य नारी को प्राप्त करने की इच्छा वाले दुरात्मा कीचक के मस्तक को कुचल डालूँगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर भीमसेन रात के समय पहले ही जाकर नृत्यशाला में छिपकर बैठ गये और कीचक की इस प्रकार प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह अदृश्य रहकर मृग की घात में बैठा रहता है। इधर कीचक भी इच्छानुसार वस्त्राभूषणों से सज-धजकर द्रौपदी के पास समागम की अभिलाषा से उसी समय नृत्यशाला के समीप आया। उस गृह को संकेत स्थान मानकर उसने भीतर प्रवेश किया। वह विशाल भवन सब ओर से अन्धकार से आच्छन्न हो रहा था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही आकर एकान्त में एक शय्या पर लेटे हुए थे। खोटी बुद्धि वाला सूतपुत्र कीचक वहाँ पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। उस समय भीमसेन कीचक द्वारा द्रौपदी के अपमान के कारण क्रोध से जल रहे थे। उनके पास पहुँचते ही काममोहित कीचक हर्ष से उन्तत्त-चित्त हो मुसकराते हुए बोला- ‘सुभ्रु! मैंने अनेक प्रकार का जो धन संचित किया है, वह सब तुम्हें भेंट कर दिया तथा मेरा जो धन रत्ननादि से सम्पन्न, सैंकड़ों दासी आदि उपकरणों से युक्त, रूपलावण्यवती युवतियों से अलंकृत तथा क्रीड़ा-विलास से सुशोभित गृह एवं अन्तःपुर है, वह सब तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं सहसा तुम्हारे पास चला आया हूँ। मेरे घर की स्त्रियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती हैं और कहती हैं- ‘आपके समान सुन्दर वस्त्रधारी और दर्शनीय दूसरा कोई पुरुष नहीं है’। भीमसेन बोले- सौभाग्य की बात है कि तुम ऐसे दर्शनीय हो और यह भी भाग्य की बात है कि तुम स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे हो। परंतु ऐसा कोमल स्पर्श भी तुम्हें पहले कभी नहीं प्राप्त हुआ होगा। स्पर्श को तो तुम खूब पहचानते हो। इस कला में बड़े चतुर हो। कामधर्म के विलक्षण ज्ञाता जान पड़ते हो। इस संसार में स्त्रियो को प्रसन्न करने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! कीचक से ऐसा कहकर भयंकर पराक्रमी कुन्तीपुत्र महाबाहु भीमसेन सहसा उछलकर खड़े हो गये और हँसते हुए इस प्रकार बोले- ‘अरे! तू पर्वत के समान विशालकाय है, तो भी जैसे सिंह महान् गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझ पापी हो पृथ्वी पर पटककर घसीटूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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