"महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 16-32" के अवतरणों में अंतर

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<h4 style="text-align:center">चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)</h4>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 16-32  का हिन्दी अनुवाद</div>
 
  
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‘सुमध्यमे! तुम कमलों में निवास करने वाली [[लक्ष्मी]] हो अथवा साकार विभूति? सुमुखि! लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति-इन देवियों में से तुम कौन हो? क्या तुम [[कामदेव]] के अंगों से क्रीड़ा करने वाली अतिशय रूपवती रति हो? सुभ्रु! तुम चन्द्रमा की परम उत्तम प्रभा के समान अत्यन्त उद्भासित हो रही हो। तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मी से अलंकृत है, तुम्हारे नेत्रों की अधखुली पलकें चाँदनी के समान मन को आह्लादित करने वाली हैं। दिव्य रश्मियों से आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छवि के द्वारा मन को रमा लेने वाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत् में कौन ऐसा पुरुष है, जो काम के अधीन न हो जाये? तुम्हारे दोनों स्तन हार आदि आभूषणों के योग्य और परम सुन्दर हैं। वे ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं। सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुस्कान वाली सुन्दरी! कमलकोश के समान आकार वाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेव के चाबुक की भाँति मुझे पीड़ा दे रहे हैं।
  
‘सुमध्यमे! तुम कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी हो अथवा साकार विभूति ? सुमुखि!  लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति- इन देवियों में से तुम कौन हो ? ‘क्या तुम कामदेव के अंगों से क्रीड़ा करने वाली अतिशय रूपवती रति हो ? सुभ्रु!  तुम चन्द्रमा की परम उत्तम प्रभा के समान अत्यन्त उद्भासित हो रही हो। ‘तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मी से अलुकृत है, तुम्हारे नेत्रों की अधखंली पलकें चाँदनी के समान मन को आह्लादित करने वाली है। दिव्य रश्मियों से आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छवि के द्वारा मन को रमा लेने वाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत् में कौन ऐसा पुरुष है, जो काम के अधीन न हो जाय ?  ‘तुम्हारे दोनों स्तन हार आदि आभूषणों के योग्य और परम सुनदर हैं। वे ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं। ‘सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुस्कान वाली सुन्दरी!  कमलकोश के समान आकार वाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेव के चाबुक की भाँति मुझे पीड़ा दे रह हैं।
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तनुमध्यमे! तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथों के अग्रभाग से (अंगूठे से लेकर तर्जनी तक के बित्ते से) माप ली जा सकती है। वह त्रिवली की तीन रेखाओं से परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनों के भार ने उसे कुछ झुका दिया है। भामिनी! नदी के दो किनारों के समान तुम्हारे मनोहर जघन को देख लेने से ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ जैसे वीर पर भी आक्रमण कर रहा है। निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानल की भाँति मेरे हृदयरूपी वन में जल उठा है। तुम्हारे समागम का संकल्प इसमें घी का काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है। वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघ से आत्मसमर्पणरूपी वर्षा द्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्नि को बुझा दो। चन्द्रमुखी! मेरे मन को उन्मत्त बना देने वाले [[कामदेव]] के बाण-समूह तुम्हारे समागम आशारूपी शान पर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं। कजरारे नयन प्रान्तों वाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए काम के वे प्रचण्ड एवं भयंकर बाण दयाशून्य हो वेग से आकर मेरे इस हृदय को विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपातजनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं।  
 
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‘तनुमध्यमे!  तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथों के अग्रभाग से (अंगूठे से लेकर तर्जनी तक के बित्ते से) माप ली जा सकती है। वह त्रिवलीकी तीन रेखाओं से परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनों के भार ने उसे कुद झुका दिया है।‘भामिनी! नदी के दो किनारों के समान तुम्हारे मनाहर जघन को देख लेने से ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ जैसे वीर पर भी आक्रमण कर रहा है। ‘निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानल की भाँति मेरे हृदयरूपी वन में जल उठा है। तुम्हारे समागम का संकल्प इसमें घी का काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है। ‘वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघ से आत्मसमर्पणरूपी वर्षा द्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्नि को बुझा दो। ‘चन्द्रमुखी! मेरे मन को उन्मत्त बना देने वाले कामदेव के बाण-समूह तुम्हारे समागम आशारूपी शान पर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं कजरारे नयनप्रान्तों वाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए काम के वे प्रचण्ड एवं भयचंकर बाण दयाशून्य हो वेग से आकर मेरे इस हृदय को विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपात जनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं।  
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वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हें। अब तुम्हीं आत्मदानजनित सम्भोगरूप औषध के द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो। ‘विलासिते!  विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणों से विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोग का सेवन करो। ‘यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र हैं। अतः तुम ऐसे स्थान में निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगने के योग्य हो, किंतु यहाँ सुख से वंचित हो। मस्तीभरी चाल से चलने वाली सैरन्ध्री!  तुम मुझसे सर्वोत्तम सुखभोग प्रापत करो। ‘अमृत के समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँति के पेय रसों का पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो। ‘महाभागे!  नाना प्रकार की भो-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगों के साथ पीने योग्यश् रसों का आस्वादन करो। उनधे!  तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप सौन्दर्य आज की परिस्थितियों में केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनी!  जैसे उत्तम हार को यदि किसी ने गले में धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरि!  तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसी के गले का हार न बन सकने के कारण सुशोभित नहीं होती हो।
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वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हैं। अब तुम्हीं आत्मदानजनित सम्भोगरूप औषध के द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो। विलासिते! विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणों से विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोग का सेवन करो। यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र हैं। अतः तुम ऐसे स्थान में निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगने के योग्य हो, किंतु यहाँ सुख से वंचित हो। मस्ती भरी चाल से चलने वाली [[सैरन्ध्री]]! तुम मुझसे सर्वोत्तम सुखभोग प्राप्त करो। अमृत के समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँति के पेय रसों का पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो। महाभागे! नाना प्रकार की भोग-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगों के साथ पीने योग्य रसों का आस्वादन करो। अनघे! तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप सौन्दर्य आज की परिस्थितियों में केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनी! जैसे उत्तम हार को यदि किसी ने गले में धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरी! तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसी के गले का हार न बन सकने के कारण सुशोभित नहीं होती हो।
 
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 33-43|]]
 
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13:42, 28 मार्च 2018 का अवतरण

चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद


‘सुमध्यमे! तुम कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी हो अथवा साकार विभूति? सुमुखि! लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति-इन देवियों में से तुम कौन हो? क्या तुम कामदेव के अंगों से क्रीड़ा करने वाली अतिशय रूपवती रति हो? सुभ्रु! तुम चन्द्रमा की परम उत्तम प्रभा के समान अत्यन्त उद्भासित हो रही हो। तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मी से अलंकृत है, तुम्हारे नेत्रों की अधखुली पलकें चाँदनी के समान मन को आह्लादित करने वाली हैं। दिव्य रश्मियों से आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छवि के द्वारा मन को रमा लेने वाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत् में कौन ऐसा पुरुष है, जो काम के अधीन न हो जाये? तुम्हारे दोनों स्तन हार आदि आभूषणों के योग्य और परम सुन्दर हैं। वे ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं। सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुस्कान वाली सुन्दरी! कमलकोश के समान आकार वाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेव के चाबुक की भाँति मुझे पीड़ा दे रहे हैं।

तनुमध्यमे! तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथों के अग्रभाग से (अंगूठे से लेकर तर्जनी तक के बित्ते से) माप ली जा सकती है। वह त्रिवली की तीन रेखाओं से परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनों के भार ने उसे कुछ झुका दिया है। भामिनी! नदी के दो किनारों के समान तुम्हारे मनोहर जघन को देख लेने से ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ जैसे वीर पर भी आक्रमण कर रहा है। निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानल की भाँति मेरे हृदयरूपी वन में जल उठा है। तुम्हारे समागम का संकल्प इसमें घी का काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है। वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघ से आत्मसमर्पणरूपी वर्षा द्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्नि को बुझा दो। चन्द्रमुखी! मेरे मन को उन्मत्त बना देने वाले कामदेव के बाण-समूह तुम्हारे समागम आशारूपी शान पर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं। कजरारे नयन प्रान्तों वाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए काम के वे प्रचण्ड एवं भयंकर बाण दयाशून्य हो वेग से आकर मेरे इस हृदय को विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपातजनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं।

वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हैं। अब तुम्हीं आत्मदानजनित सम्भोगरूप औषध के द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो। विलासिते! विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणों से विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोग का सेवन करो। यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र हैं। अतः तुम ऐसे स्थान में निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगने के योग्य हो, किंतु यहाँ सुख से वंचित हो। मस्ती भरी चाल से चलने वाली सैरन्ध्री! तुम मुझसे सर्वोत्तम सुखभोग प्राप्त करो। अमृत के समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँति के पेय रसों का पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो। महाभागे! नाना प्रकार की भोग-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगों के साथ पीने योग्य रसों का आस्वादन करो। अनघे! तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप सौन्दर्य आज की परिस्थितियों में केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनी! जैसे उत्तम हार को यदि किसी ने गले में धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरी! तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसी के गले का हार न बन सकने के कारण सुशोभित नहीं होती हो।

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