"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-30" के अवतरणों में अंतर

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ऐसा हो जाने पर मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचिन्‍मात्र भी आवश्‍यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानंद स्‍वरूप परमात्‍मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरंतर आनंद में मग्‍न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्‍यतृप्‍त’ हो जाना है।</ref> वह कर्म में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग<ref>जिस मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक वस्‍तु की कुछ भी आवश्‍यकता नहीं है; जो किसी भी कर्म से या मनुष्‍य से किसी प्रकार का भोग प्राप्‍त होने की किंचिन्‍मात्र भी आशा या इच्‍छा नहीं रखता; जिसने सब प्रकार की इच्‍छा, कामना, वासना आदि का सर्वथा त्‍याग कर दिया है- उसे ‘निराशी:’ कहते हैं; जिसका अंतकरण और समस्‍त इन्द्रियों सहित शरीर वश में है- अर्थात् जिसके मन और इन्द्रिय राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उन पर शब्‍दादि विषयों के संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता और जिसका शरीर भी जैसे वह उसे रखना चाहता है वेसे ही रहता है- वह चाहे गृहस्‍थ हो या संन्‍यासी ‘यतचित्तात्‍मा’ है और जिसकी किसी भी वस्‍तु में ममता नहीं है तथा जिसने समस्‍त भोग-सामग्रियों के सग्रह का भलीभाँति त्‍याग कर दिया है, वह संन्‍यासी तो सर्वथा ‘‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है ही। इसके सिवा जो कोई दूसरे आश्रम वाला भी यदि उपर्युक्‍त प्रकार से परिग्रह का त्‍याग कर देने वाला है तो वह भी ‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है।</ref> कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता।<ref>उपर्युक्त पुरुष को न तो यज्ञादि कर्मों का अनुष्‍ठान न करने से होने वाला प्रत्‍यवायरूप पाप लगता है और न शरीर-निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले पापों से ही उसका संबंध होता है; यही उसका ‘पाप’ को प्राप्‍त न होना है।</ref> जो बिना इच्छा<ref>अनिच्‍छा से या परेच्‍छा से प्रारब्‍धानुसार जो अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह ‘यदृच्‍छालाभ’ है, इस यदृच्‍छा लाभ में सदा ही आनंद मानना, न किसी अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसमें राग करना,उसके बने रहने या बढ़ने की इच्‍छा करना और न प्रतिकूल की प्राप्ति में द्वेष करना, उसके नष्‍ट हो जाने की इच्‍छा करना-इस प्रकार दोनों को ही प्रारब्‍ध या भगवान् का विधान समझकर निरंतर शांत और प्रसन्‍नचित्त रहना-यही ‘यदृच्‍छालाभ’ में सदा संतुष्‍ट रहना है।</ref> के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्‍ट रहता है, जिसमें ईर्ष्‍या का सर्वथा अभाव हो गया हैं, जो हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया हैं- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला<ref>यज्ञ, दान और तप आदि किसी भी कर्तव्‍यकर्म का निर्विघ्नता से पूर्ण हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार विघ्‍न-बाधा के कारण उसका पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इसी प्रकार जिस उद्देश्‍य से कर्म किया जाता है, उस उद्देश्‍य का पूर्ण हो जाना सिद्धि है ओर पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इस प्रकार की सिद्धि और असिद्धि में भेदबुद्धि का न होना अर्थात् सिद्धि में हर्ष और आसक्ति आदि तथा असिद्धि में द्वेष और शोक आदि विकारों न होना, दोनों में एक-सा भाव रहना ही सिद्धि और असिद्धि में सम रहना है।</ref>कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।<ref>जिस प्रकार केवल शरीर संबंधी कर्मों को करने वाला परिग्रहरहित सांख्‍ययोगी अन्‍य कर्मों का आचरण न करने पर भी कर्म न करने के पाप से लिप्‍त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मयोगी विहित कर्मों का अनुष्‍ठान करके भी उनसे नहीं बंधता।</ref>
 
ऐसा हो जाने पर मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचिन्‍मात्र भी आवश्‍यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानंद स्‍वरूप परमात्‍मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरंतर आनंद में मग्‍न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्‍यतृप्‍त’ हो जाना है।</ref> वह कर्म में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग<ref>जिस मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक वस्‍तु की कुछ भी आवश्‍यकता नहीं है; जो किसी भी कर्म से या मनुष्‍य से किसी प्रकार का भोग प्राप्‍त होने की किंचिन्‍मात्र भी आशा या इच्‍छा नहीं रखता; जिसने सब प्रकार की इच्‍छा, कामना, वासना आदि का सर्वथा त्‍याग कर दिया है- उसे ‘निराशी:’ कहते हैं; जिसका अंतकरण और समस्‍त इन्द्रियों सहित शरीर वश में है- अर्थात् जिसके मन और इन्द्रिय राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उन पर शब्‍दादि विषयों के संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता और जिसका शरीर भी जैसे वह उसे रखना चाहता है वेसे ही रहता है- वह चाहे गृहस्‍थ हो या संन्‍यासी ‘यतचित्तात्‍मा’ है और जिसकी किसी भी वस्‍तु में ममता नहीं है तथा जिसने समस्‍त भोग-सामग्रियों के सग्रह का भलीभाँति त्‍याग कर दिया है, वह संन्‍यासी तो सर्वथा ‘‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है ही। इसके सिवा जो कोई दूसरे आश्रम वाला भी यदि उपर्युक्‍त प्रकार से परिग्रह का त्‍याग कर देने वाला है तो वह भी ‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है।</ref> कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता।<ref>उपर्युक्त पुरुष को न तो यज्ञादि कर्मों का अनुष्‍ठान न करने से होने वाला प्रत्‍यवायरूप पाप लगता है और न शरीर-निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले पापों से ही उसका संबंध होता है; यही उसका ‘पाप’ को प्राप्‍त न होना है।</ref> जो बिना इच्छा<ref>अनिच्‍छा से या परेच्‍छा से प्रारब्‍धानुसार जो अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह ‘यदृच्‍छालाभ’ है, इस यदृच्‍छा लाभ में सदा ही आनंद मानना, न किसी अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसमें राग करना,उसके बने रहने या बढ़ने की इच्‍छा करना और न प्रतिकूल की प्राप्ति में द्वेष करना, उसके नष्‍ट हो जाने की इच्‍छा करना-इस प्रकार दोनों को ही प्रारब्‍ध या भगवान् का विधान समझकर निरंतर शांत और प्रसन्‍नचित्त रहना-यही ‘यदृच्‍छालाभ’ में सदा संतुष्‍ट रहना है।</ref> के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्‍ट रहता है, जिसमें ईर्ष्‍या का सर्वथा अभाव हो गया हैं, जो हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया हैं- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला<ref>यज्ञ, दान और तप आदि किसी भी कर्तव्‍यकर्म का निर्विघ्नता से पूर्ण हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार विघ्‍न-बाधा के कारण उसका पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इसी प्रकार जिस उद्देश्‍य से कर्म किया जाता है, उस उद्देश्‍य का पूर्ण हो जाना सिद्धि है ओर पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इस प्रकार की सिद्धि और असिद्धि में भेदबुद्धि का न होना अर्थात् सिद्धि में हर्ष और आसक्ति आदि तथा असिद्धि में द्वेष और शोक आदि विकारों न होना, दोनों में एक-सा भाव रहना ही सिद्धि और असिद्धि में सम रहना है।</ref>कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।<ref>जिस प्रकार केवल शरीर संबंधी कर्मों को करने वाला परिग्रहरहित सांख्‍ययोगी अन्‍य कर्मों का आचरण न करने पर भी कर्म न करने के पाप से लिप्‍त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मयोगी विहित कर्मों का अनुष्‍ठान करके भी उनसे नहीं बंधता।</ref>
  
जिसकी आसक्ति नष्‍ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर [[परमात्‍मा]] के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्‍पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।<ref>अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्‍य का जो शास्‍त्रदृष्टि से विहित कर्तव्‍य है, वही उसके लिये यज्ञ है। उस शास्‍त्रविहित यज्ञ का सम्‍पादन करने के उद्देश्‍य से ही जो कर्मों का करना है- अर्थात् किसी प्रकार के स्‍वार्थ का संबंध न रखकर केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञ की परम्‍परा सुरक्षित रखने के लिये ही जो कर्मों का आचरण करना है, वही यज्ञ के लिये कर्मों का आचरण करना है। उपर्युक्‍त प्रकार से कर्म करने वाले पुरुष के कर्म उसको बांधने वाले नहीं होते, इतना ही नहीं; किंतु जैसे किसी घास की ढेरी को आग में जलाकर गिराया हुआ घास स्‍वयं भी जलकर नष्‍ट हो जाता है और उस घास की ढेरी को भी भस्‍म कर देता है- वैसे ही आसक्ति, फलेच्‍छा, ममता और अभिमान के त्‍यागरूप अग्नि में जलाकर किये हुए कर्म पूर्व-संचित समस्‍त कर्मों के सहित विलीन हो जाते हैं, फिर उसके किसी भी कर्म में किसी प्रकार का फल देने की शक्ति नहीं रहती।</ref> संबंध- पूर्व श्लोक यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्‍त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हवि का हवन करना ही यज्ञ है और उसका सम्‍पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; इसी भाव को सुस्‍पष्‍ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोक में भिन्न-भिन्‍न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्‍मा की प्राप्ति के साधनरूप शास्‍त्रविहित कर्तव्‍य-कर्मों का विभिन्‍न यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्‍य द्रव्‍य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आ‍हुति देनारूप किया भी ब्रह्म है।<ref>इस यज्ञ में स्त्रुवा, हवि, हवन करने वाला और हवनरूप क्रियाएं आदि भिन्‍न-भिन्‍न वस्‍तुएं नहीं होती; ऐसा यज्ञ करने वाले योगी की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही होता है; क्‍योंकि वह जिन मन, बुद्धि आदि के द्वारा समस्‍त जगत् को ब्रह्म समझने का अभ्‍यास करता है, उनको, अपने को, इस अभ्‍यासरूप क्रिया को या अन्‍य किसी भी वस्‍तु को ब्रह्म से भिन्‍न नहीं समझता, सबको ब्रह्मरूप ही देखता है; इसलिये उसकी उनमें किसी प्रकार की भी भेदबुद्धि नहीं रहता।</ref> उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्‍त किये जाने योग्‍य फल भी ब्रह्म ही है। दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्‍ठान किया करते हैं<ref>[[ब्रह्मा]], [[शिव]], शक्ति, [[गणेश]], सूर्य, चन्‍द्रमा, इन्‍द्र आदि जो वरुणादि जो शास्‍त्रसम्‍मत देव हैं- उनके लिये हवन करना, उनकी पूजा करना, उनके मन्‍त्र का जप करना, उनके निमित्त दान देना और ब्राह्मण-भोजन करवाना आदि समस्‍त कर्मों का अपना कर्तव्‍य समझकर बिना ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा के केवल परमातमा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शास्‍त्रविधि के अनुसार पूर्णतया अनुष्‍ठान करना ही देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्‍ठान करना है।</ref> और अन्‍य योगीजन परब्रह्म परमात्‍मरूप अग्नि में अभेददर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्‍मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।<ref>अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण शरीर की उपाधि से आत्‍मा ओर परमात्‍मा का भेद अनादिकाल से प्रतीत हो रहा है; इस अज्ञानजनित भेद-प्रतीति को ज्ञान के अभ्‍यास द्वारा मिटा देना अर्थात् शास्‍त्र और आचार्य के उपदेश से सुने हुए तत्त्‍वज्ञान का निरंतर मनन और निदिध्‍यासन करते-करते नित्‍य विज्ञानानंदघन गुणातीत परब्रह्म परमात्‍मा में अभेदभाव से आत्‍मा को एक कर देना-विलीन कर देना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है।</ref> अन्‍य योगीजन श्रोत्र आदि समस्‍त इन्द्रियों को संयम-रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं<ref>श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिक को वश में करके प्रत्‍याहार करना-शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध आदि बाहर-भीतर के विषयों से विवेकपूर्वक उन्‍हें हटाकर उपरत होना ही श्रोत्र आदि इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। इसका सुस्‍पष्‍टभाव [[गीता]] के दूसरे अध्‍याय के अठावनवें श्‍लोक में कछुए के दृष्‍टांत से बतलाया गया है।</ref> और दूसरे योगी लोग शब्‍दादि समस्‍त विषयों को इन्द्रियरुप अग्नियों में हवन किया करते हैं।<ref>कानों के द्वारा निंदा और स्‍तुति को या अन्‍य किसी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल शब्‍दों को सुनते हुए, नेत्रों के द्वारा अच्छे-बुरे दृष्‍यों को देखते हुए, जिह्वा के द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल रस को ग्रहण करते हुए- इसी प्रकार अन्‍य समस्‍त इन्द्रियों द्वारा भी प्रारब्‍ध के अनुसार योग्‍यता से प्राप्‍त समस्‍त विषयों का अनासक्‍तभाव से सेवन करते हुए अंतकरण में समभाव रखना, भेदबुद्धिजनित राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकारों का न होने देना-अर्थात् उन विषयों में जो मन और इन्द्रियों को विक्षिप्‍त (विचलित) करने की शक्ति है, उसका नाश करके उनको इन्द्रियों में विलिन करते रहना-यही शब्‍दादि विषयों का इन्द्रियरूप अग्निरूप में हवन करना है।</ref>
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जिसकी आसक्ति नष्‍ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर [[परमात्‍मा]] के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्‍पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।<ref>अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्‍य का जो शास्‍त्रदृष्टि से विहित कर्तव्‍य है, वही उसके लिये यज्ञ है। उस शास्‍त्रविहित यज्ञ का सम्‍पादन करने के उद्देश्‍य से ही जो कर्मों का करना है- अर्थात् किसी प्रकार के स्‍वार्थ का संबंध न रखकर केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञ की परम्‍परा सुरक्षित रखने के लिये ही जो कर्मों का आचरण करना है, वही यज्ञ के लिये कर्मों का आचरण करना है। उपर्युक्‍त प्रकार से कर्म करने वाले पुरुष के कर्म उसको बांधने वाले नहीं होते, इतना ही नहीं; किंतु जैसे किसी घास की ढेरी को आग में जलाकर गिराया हुआ घास स्‍वयं भी जलकर नष्‍ट हो जाता है और उस घास की ढेरी को भी भस्‍म कर देता है- वैसे ही आसक्ति, फलेच्‍छा, ममता और अभिमान के त्‍यागरूप अग्नि में जलाकर किये हुए कर्म पूर्व-संचित समस्‍त कर्मों के सहित विलीन हो जाते हैं, फिर उसके किसी भी कर्म में किसी प्रकार का फल देने की शक्ति नहीं रहती।</ref> संबंध- पूर्व श्लोक यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्‍त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हवि का हवन करना ही यज्ञ है और उसका सम्‍पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; इसी भाव को सुस्‍पष्‍ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोक में भिन्न-भिन्‍न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्‍मा की प्राप्ति के साधनरूप शास्‍त्रविहित कर्तव्‍य-कर्मों का विभिन्‍न यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्‍य द्रव्‍य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आ‍हुति देनारूप किया भी ब्रह्म है।<ref>इस यज्ञ में स्त्रुवा, हवि, हवन करने वाला और हवनरूप क्रियाएं आदि भिन्‍न-भिन्‍न वस्‍तुएं नहीं होती; ऐसा यज्ञ करने वाले योगी की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही होता है; क्‍योंकि वह जिन मन, बुद्धि आदि के द्वारा समस्‍त जगत् को ब्रह्म समझने का अभ्‍यास करता है, उनको, अपने को, इस अभ्‍यासरूप क्रिया को या अन्‍य किसी भी वस्‍तु को ब्रह्म से भिन्‍न नहीं समझता, सबको ब्रह्मरूप ही देखता है; इसलिये उसकी उनमें किसी प्रकार की भी भेदबुद्धि नहीं रहता।</ref> उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्‍त किये जाने योग्‍य फल भी ब्रह्म ही है। दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्‍ठान किया करते हैं<ref>[[ब्रह्मा]], [[शिव]], शक्ति, [[गणेश]], सूर्य, चन्‍द्रमा, इन्‍द्र आदि जो वरुणादि जो शास्‍त्रसम्‍मत देव हैं- उनके लिये हवन करना, उनकी पूजा करना, उनके मन्‍त्र का जप करना, उनके निमित्त दान देना और ब्राह्मण-भोजन करवाना आदि समस्‍त कर्मों का अपना कर्तव्‍य समझकर बिना ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा के केवल परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शास्‍त्रविधि के अनुसार पूर्णतया अनुष्‍ठान करना ही देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्‍ठान करना है।</ref> और अन्‍य योगीजन परब्रह्म परमात्‍मरूप अग्नि में अभेददर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्‍मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।<ref>अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण शरीर की उपाधि से आत्‍मा ओर परमात्‍मा का भेद अनादिकाल से प्रतीत हो रहा है; इस अज्ञानजनित भेद-प्रतीति को ज्ञान के अभ्‍यास द्वारा मिटा देना अर्थात् शास्‍त्र और आचार्य के उपदेश से सुने हुए तत्त्‍वज्ञान का निरंतर मनन और निदिध्‍यासन करते-करते नित्‍य विज्ञानानंदघन गुणातीत परब्रह्म परमात्‍मा में अभेदभाव से आत्‍मा को एक कर देना-विलीन कर देना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है।</ref> अन्‍य योगीजन श्रोत्र आदि समस्‍त इन्द्रियों को संयम-रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं<ref>श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिक को वश में करके प्रत्‍याहार करना-शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध आदि बाहर-भीतर के विषयों से विवेकपूर्वक उन्‍हें हटाकर उपरत होना ही श्रोत्र आदि इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। इसका सुस्‍पष्‍टभाव [[गीता]] के दूसरे अध्‍याय के अठावनवें श्‍लोक में कछुए के दृष्‍टांत से बतलाया गया है।</ref> और दूसरे योगी लोग शब्‍दादि समस्‍त विषयों को इन्द्रियरुप अग्नियों में हवन किया करते हैं।<ref>कानों के द्वारा निंदा और स्‍तुति को या अन्‍य किसी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल शब्‍दों को सुनते हुए, नेत्रों के द्वारा अच्छे-बुरे दृष्‍यों को देखते हुए, जिह्वा के द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल रस को ग्रहण करते हुए- इसी प्रकार अन्‍य समस्‍त इन्द्रियों द्वारा भी प्रारब्‍ध के अनुसार योग्‍यता से प्राप्‍त समस्‍त विषयों का अनासक्‍तभाव से सेवन करते हुए अंतकरण में समभाव रखना, भेदबुद्धिजनित राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकारों का न होने देना-अर्थात् उन विषयों में जो मन और इन्द्रियों को विक्षिप्‍त (विचलित) करने की शक्ति है, उसका नाश करके उनको इन्द्रियों में विलिन करते रहना-यही शब्‍दादि विषयों का इन्द्रियरूप अग्निरूप में हवन करना है।</ref>
  
 
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्‍पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्‍त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्‍मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।<ref>इस प्रकार के ध्यानयोग में जो मनोनिग्रहपूर्वक इन्द्रियों की देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, आस्वादन करना एवं ग्रहण करना, त्याग करना, बोलना और चलना फिरना आदि तथा प्राणों की श्वास प्रश्वास और हिलना डुलना आदि समस्त क्रियाओं को विलीन करके समाधिस्थ हो जाना है यही आत्म-संयम योगरूप् अग्नि में इन्द्रियों की और प्राणों की समस्त क्रियाओं का हवन करना है।</ref> कई पुरुष द्रव्‍यसंबंधी यज्ञ करने वाले हैं,<ref>अपने-अपने वर्णधर्म के अनुसार न्‍याय से प्राप्‍त द्रव्‍य को ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा का त्‍याग करके यथायोग्‍य लोकसेवा में लगाना अर्थात् उपर्युक्‍त भाव से बावली, कुएं, तालाब, मंदिर, धर्मशाला आदि बनवाना; भूखे, अनाथ, रोगी, दुखी, असमर्थ, भिक्षु आदि मनुष्‍यों की यथावश्‍यक अन्‍न, वस्‍त्र, जल, औषध, पुस्‍तक आदि वस्‍तुओं द्वारा सेवा करना; विद्वान् तपस्वी वेदपाठी सदाचारी ब्राह्मणों को गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थों का यथायोग्य अपनी शक्ति के अनुसार दान करना- इसी तरह अन्य सब प्राणियों को सुख पहुँचाने के उद्देश्‍य से यथाशक्ति द्रव्य का व्यय करना ‘द्रव्ययज्ञ’ हैं।</ref> कितने ही तपस्‍यारूप यज्ञ करने वाले हैं<ref>परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से अन्त:करण और इन्द्रियों को पवित्र करने के लिये ममता, आसक्ति ओर फलेच्छा के त्यागपूर्वक व्रत-उपवासादि करना; धर्मपालन के लिये कष्‍ट सहना करना; मौन धारण करना; अग्नि और सूर्य के तेज को तथा वायु को सहन करना; एक वस्त्र या दो वस्त्रों से अधिक का त्याग कर देना; अन्न का त्याग कर देना, केवल फल या दूध खाकर ही शरीर का निर्वाह करना; वनवास करना आदि जो शास्त्रविधि के अनुसार तितिक्षा सम्बन्धी क्रियाएं हैं- उन सबका वाचक यहाँ ‘तपोयज्ञ’ है।</ref> तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं<ref>यहाँ योगरूप यज्ञ से यह भाव समझना चाहिये कि बहुत-से साधक परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से आसक्ति, फलेच्छा और ममता का त्याग करके अष्‍टाङ्गयोगरूप यज्ञ का ही अनुष्‍ठान किया करते हैं। [[यम]], नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार किंचिन्मात्र कभी कष्‍ट न देना (अहिंसा); हित की भावना से कपटरहित प्रिय शब्दों में यथार्थभाषण (सत्य); किसी प्रकार से भी किसी के स्वत्व- हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा सर्वदा सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाह के अतिरिक्त भोग्य सामग्री का कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह)- इन पांचों का नाम ‘यम’ है। सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता रखना (शौच); प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्‍ट रहना (संतोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्‍ययन तथा ईश्‍वर के नाम और गुणों का कीर्तन करना (स्वाध्‍याय); सर्वस्व ईश्‍वर के अर्पण करके उनकी आज्ञा का पालन करना (ईश्‍वरप्रणिधान)- इन पांचों का नाम ‘नियम’ है। सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम ‘आसन’ हैं। आसन अनेकों प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिये सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन- ये तीन बहुत उपयोगी माने गये है। इनमें से कोई-सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्‍ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्‍य रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी के मध्‍यभाग में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखें मूंदकर भी बैठ सकते है। जो पुरुष जिस आसन से सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, उसके लिये वही आसन उत्तम है।<br />
 
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्‍पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्‍त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्‍मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।<ref>इस प्रकार के ध्यानयोग में जो मनोनिग्रहपूर्वक इन्द्रियों की देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, आस्वादन करना एवं ग्रहण करना, त्याग करना, बोलना और चलना फिरना आदि तथा प्राणों की श्वास प्रश्वास और हिलना डुलना आदि समस्त क्रियाओं को विलीन करके समाधिस्थ हो जाना है यही आत्म-संयम योगरूप् अग्नि में इन्द्रियों की और प्राणों की समस्त क्रियाओं का हवन करना है।</ref> कई पुरुष द्रव्‍यसंबंधी यज्ञ करने वाले हैं,<ref>अपने-अपने वर्णधर्म के अनुसार न्‍याय से प्राप्‍त द्रव्‍य को ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा का त्‍याग करके यथायोग्‍य लोकसेवा में लगाना अर्थात् उपर्युक्‍त भाव से बावली, कुएं, तालाब, मंदिर, धर्मशाला आदि बनवाना; भूखे, अनाथ, रोगी, दुखी, असमर्थ, भिक्षु आदि मनुष्‍यों की यथावश्‍यक अन्‍न, वस्‍त्र, जल, औषध, पुस्‍तक आदि वस्‍तुओं द्वारा सेवा करना; विद्वान् तपस्वी वेदपाठी सदाचारी ब्राह्मणों को गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थों का यथायोग्य अपनी शक्ति के अनुसार दान करना- इसी तरह अन्य सब प्राणियों को सुख पहुँचाने के उद्देश्‍य से यथाशक्ति द्रव्य का व्यय करना ‘द्रव्ययज्ञ’ हैं।</ref> कितने ही तपस्‍यारूप यज्ञ करने वाले हैं<ref>परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से अन्त:करण और इन्द्रियों को पवित्र करने के लिये ममता, आसक्ति ओर फलेच्छा के त्यागपूर्वक व्रत-उपवासादि करना; धर्मपालन के लिये कष्‍ट सहना करना; मौन धारण करना; अग्नि और सूर्य के तेज को तथा वायु को सहन करना; एक वस्त्र या दो वस्त्रों से अधिक का त्याग कर देना; अन्न का त्याग कर देना, केवल फल या दूध खाकर ही शरीर का निर्वाह करना; वनवास करना आदि जो शास्त्रविधि के अनुसार तितिक्षा सम्बन्धी क्रियाएं हैं- उन सबका वाचक यहाँ ‘तपोयज्ञ’ है।</ref> तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं<ref>यहाँ योगरूप यज्ञ से यह भाव समझना चाहिये कि बहुत-से साधक परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से आसक्ति, फलेच्छा और ममता का त्याग करके अष्‍टाङ्गयोगरूप यज्ञ का ही अनुष्‍ठान किया करते हैं। [[यम]], नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार किंचिन्मात्र कभी कष्‍ट न देना (अहिंसा); हित की भावना से कपटरहित प्रिय शब्दों में यथार्थभाषण (सत्य); किसी प्रकार से भी किसी के स्वत्व- हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा सर्वदा सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाह के अतिरिक्त भोग्य सामग्री का कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह)- इन पांचों का नाम ‘यम’ है। सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता रखना (शौच); प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्‍ट रहना (संतोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्‍ययन तथा ईश्‍वर के नाम और गुणों का कीर्तन करना (स्वाध्‍याय); सर्वस्व ईश्‍वर के अर्पण करके उनकी आज्ञा का पालन करना (ईश्‍वरप्रणिधान)- इन पांचों का नाम ‘नियम’ है। सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम ‘आसन’ हैं। आसन अनेकों प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिये सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन- ये तीन बहुत उपयोगी माने गये है। इनमें से कोई-सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्‍ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्‍य रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी के मध्‍यभाग में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखें मूंदकर भी बैठ सकते है। जो पुरुष जिस आसन से सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, उसके लिये वही आसन उत्तम है।<br />

01:03, 27 मार्च 2018 के समय का अवतरण

अष्‍टाविंश (28) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्‍टाविंश अध्याय: श्लोक 19-30 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 4

जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं[1] तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप और अकर्म का अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं,[2] उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति[3] का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त हैं,[4] वह कर्म में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग[5] कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता।[6] जो बिना इच्छा[7] के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्‍ट रहता है, जिसमें ईर्ष्‍या का सर्वथा अभाव हो गया हैं, जो हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया हैं- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला[8]कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।[9]

जिसकी आसक्ति नष्‍ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्‍मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्‍पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।[10] संबंध- पूर्व श्लोक यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्‍त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हवि का हवन करना ही यज्ञ है और उसका सम्‍पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; इसी भाव को सुस्‍पष्‍ट करने के लिये अब भगवान् सात श्लोक में भिन्न-भिन्‍न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्‍मा की प्राप्ति के साधनरूप शास्‍त्रविहित कर्तव्‍य-कर्मों का विभिन्‍न यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्‍य द्रव्‍य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आ‍हुति देनारूप किया भी ब्रह्म है।[11] उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्‍त किये जाने योग्‍य फल भी ब्रह्म ही है। दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्‍ठान किया करते हैं[12] और अन्‍य योगीजन परब्रह्म परमात्‍मरूप अग्नि में अभेददर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्‍मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।[13] अन्‍य योगीजन श्रोत्र आदि समस्‍त इन्द्रियों को संयम-रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं[14] और दूसरे योगी लोग शब्‍दादि समस्‍त विषयों को इन्द्रियरुप अग्नियों में हवन किया करते हैं।[15]

दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्‍पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्‍त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्‍मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।[16] कई पुरुष द्रव्‍यसंबंधी यज्ञ करने वाले हैं,[17] कितने ही तपस्‍यारूप यज्ञ करने वाले हैं[18] तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं[19] और कितने ही अहिंसादि तीक्ष्‍ण व्रतों से युक्‍त यत्नशील पुरुष स्वाध्‍यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं।[20] दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,[21] वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं[22] तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं[23] ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाला हैं।[24]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्त्री, पुरुष, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्‍ठा और स्वर्ग-सुख आदि इस लोक ओर परलोक के जितने भी विषय (पदार्थ) हैं, उनमें से किसी का किंचिन्मात्र भी इच्छा करने का नाम ‘कामना’ हैं तथा किसी विषय को ममता, अहंकार, राग-द्वेष एवं रमणीय बुद्धि से स्मरण करने का नाम ‘संकल्प’ है। कामना संकल्प का कार्य है और संकल्प उसका कारण है। विषयों का स्मरण करने से ही उनमें आसक्ति होकर कामना की उत्पत्ति होती है। (गीता 2।62) जिन कर्मों में किसी वस्तु के संयोग-वियोग की किंचिन्मात्र भी कामना नहीं है; जिनमें ममता, अहंकार और आसक्ति का सर्वथा अभाव हैं और जो केवल लोक-संग्रह के लिये चेष्‍टामात्र किये जाते हैं- वे सब कर्म कामना और संकल्प से रहित हैं।
  2. जैसे अग्नि द्वारा भुने हुए बीज केवल नाममात्र के ही बीज रह जाते हैं, उनमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा जो समस्त कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति का सर्वथा नष्‍ट हो जाना है- यही उन कर्मों का ज्ञानरूप अग्नि से भस्म हो जाना है।
  3. अपि’ अव्यय से यह भाव दिखलाया गया है कि ममता, अहंकार और फलासक्ति से युक्‍त मनुष्‍य तो कर्मों का स्‍वरूप से त्‍याग करके भी कर्मबंधन से मुक्‍त नहीं हो सकता और यह नित्‍यतृप्‍त पुरुष समस्‍त कर्मों को करता हुआ भी उनक बंधन में नहीं पड़ता।
  4. आसक्ति का सर्वथा त्‍याग करके शरीर में अहङ्कार और ममता से सर्वथा रहित हो जाना और किसी भी सांसारिक वस्‍तु के या मनुष्‍य के आश्रित न होना अर्थात् अमुक वस्‍तु या मनुष्‍य से ही मेरा निर्वाह होता है, यही आधार है, इसके बिना काम ही नहीं चल सकता-इस प्रकार के भावों का सर्वथा अभाव हो जाना ही ‘निराश्रय’ हो जाना है। ऐसा हो जाने पर मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचिन्‍मात्र भी आवश्‍यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानंद स्‍वरूप परमात्‍मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरंतर आनंद में मग्‍न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्‍यतृप्‍त’ हो जाना है।
  5. जिस मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक वस्‍तु की कुछ भी आवश्‍यकता नहीं है; जो किसी भी कर्म से या मनुष्‍य से किसी प्रकार का भोग प्राप्‍त होने की किंचिन्‍मात्र भी आशा या इच्‍छा नहीं रखता; जिसने सब प्रकार की इच्‍छा, कामना, वासना आदि का सर्वथा त्‍याग कर दिया है- उसे ‘निराशी:’ कहते हैं; जिसका अंतकरण और समस्‍त इन्द्रियों सहित शरीर वश में है- अर्थात् जिसके मन और इन्द्रिय राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उन पर शब्‍दादि विषयों के संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता और जिसका शरीर भी जैसे वह उसे रखना चाहता है वेसे ही रहता है- वह चाहे गृहस्‍थ हो या संन्‍यासी ‘यतचित्तात्‍मा’ है और जिसकी किसी भी वस्‍तु में ममता नहीं है तथा जिसने समस्‍त भोग-सामग्रियों के सग्रह का भलीभाँति त्‍याग कर दिया है, वह संन्‍यासी तो सर्वथा ‘‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है ही। इसके सिवा जो कोई दूसरे आश्रम वाला भी यदि उपर्युक्‍त प्रकार से परिग्रह का त्‍याग कर देने वाला है तो वह भी ‘त्‍यक्‍तसर्वपरिग्रह’ है।
  6. उपर्युक्त पुरुष को न तो यज्ञादि कर्मों का अनुष्‍ठान न करने से होने वाला प्रत्‍यवायरूप पाप लगता है और न शरीर-निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले पापों से ही उसका संबंध होता है; यही उसका ‘पाप’ को प्राप्‍त न होना है।
  7. अनिच्‍छा से या परेच्‍छा से प्रारब्‍धानुसार जो अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह ‘यदृच्‍छालाभ’ है, इस यदृच्‍छा लाभ में सदा ही आनंद मानना, न किसी अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसमें राग करना,उसके बने रहने या बढ़ने की इच्‍छा करना और न प्रतिकूल की प्राप्ति में द्वेष करना, उसके नष्‍ट हो जाने की इच्‍छा करना-इस प्रकार दोनों को ही प्रारब्‍ध या भगवान् का विधान समझकर निरंतर शांत और प्रसन्‍नचित्त रहना-यही ‘यदृच्‍छालाभ’ में सदा संतुष्‍ट रहना है।
  8. यज्ञ, दान और तप आदि किसी भी कर्तव्‍यकर्म का निर्विघ्नता से पूर्ण हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार विघ्‍न-बाधा के कारण उसका पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इसी प्रकार जिस उद्देश्‍य से कर्म किया जाता है, उस उद्देश्‍य का पूर्ण हो जाना सिद्धि है ओर पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इस प्रकार की सिद्धि और असिद्धि में भेदबुद्धि का न होना अर्थात् सिद्धि में हर्ष और आसक्ति आदि तथा असिद्धि में द्वेष और शोक आदि विकारों न होना, दोनों में एक-सा भाव रहना ही सिद्धि और असिद्धि में सम रहना है।
  9. जिस प्रकार केवल शरीर संबंधी कर्मों को करने वाला परिग्रहरहित सांख्‍ययोगी अन्‍य कर्मों का आचरण न करने पर भी कर्म न करने के पाप से लिप्‍त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मयोगी विहित कर्मों का अनुष्‍ठान करके भी उनसे नहीं बंधता।
  10. अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्‍य का जो शास्‍त्रदृष्टि से विहित कर्तव्‍य है, वही उसके लिये यज्ञ है। उस शास्‍त्रविहित यज्ञ का सम्‍पादन करने के उद्देश्‍य से ही जो कर्मों का करना है- अर्थात् किसी प्रकार के स्‍वार्थ का संबंध न रखकर केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञ की परम्‍परा सुरक्षित रखने के लिये ही जो कर्मों का आचरण करना है, वही यज्ञ के लिये कर्मों का आचरण करना है। उपर्युक्‍त प्रकार से कर्म करने वाले पुरुष के कर्म उसको बांधने वाले नहीं होते, इतना ही नहीं; किंतु जैसे किसी घास की ढेरी को आग में जलाकर गिराया हुआ घास स्‍वयं भी जलकर नष्‍ट हो जाता है और उस घास की ढेरी को भी भस्‍म कर देता है- वैसे ही आसक्ति, फलेच्‍छा, ममता और अभिमान के त्‍यागरूप अग्नि में जलाकर किये हुए कर्म पूर्व-संचित समस्‍त कर्मों के सहित विलीन हो जाते हैं, फिर उसके किसी भी कर्म में किसी प्रकार का फल देने की शक्ति नहीं रहती।
  11. इस यज्ञ में स्त्रुवा, हवि, हवन करने वाला और हवनरूप क्रियाएं आदि भिन्‍न-भिन्‍न वस्‍तुएं नहीं होती; ऐसा यज्ञ करने वाले योगी की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही होता है; क्‍योंकि वह जिन मन, बुद्धि आदि के द्वारा समस्‍त जगत् को ब्रह्म समझने का अभ्‍यास करता है, उनको, अपने को, इस अभ्‍यासरूप क्रिया को या अन्‍य किसी भी वस्‍तु को ब्रह्म से भिन्‍न नहीं समझता, सबको ब्रह्मरूप ही देखता है; इसलिये उसकी उनमें किसी प्रकार की भी भेदबुद्धि नहीं रहता।
  12. ब्रह्मा, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, चन्‍द्रमा, इन्‍द्र आदि जो वरुणादि जो शास्‍त्रसम्‍मत देव हैं- उनके लिये हवन करना, उनकी पूजा करना, उनके मन्‍त्र का जप करना, उनके निमित्त दान देना और ब्राह्मण-भोजन करवाना आदि समस्‍त कर्मों का अपना कर्तव्‍य समझकर बिना ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा के केवल परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शास्‍त्रविधि के अनुसार पूर्णतया अनुष्‍ठान करना ही देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्‍ठान करना है।
  13. अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण शरीर की उपाधि से आत्‍मा ओर परमात्‍मा का भेद अनादिकाल से प्रतीत हो रहा है; इस अज्ञानजनित भेद-प्रतीति को ज्ञान के अभ्‍यास द्वारा मिटा देना अर्थात् शास्‍त्र और आचार्य के उपदेश से सुने हुए तत्त्‍वज्ञान का निरंतर मनन और निदिध्‍यासन करते-करते नित्‍य विज्ञानानंदघन गुणातीत परब्रह्म परमात्‍मा में अभेदभाव से आत्‍मा को एक कर देना-विलीन कर देना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है।
  14. श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिक को वश में करके प्रत्‍याहार करना-शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध आदि बाहर-भीतर के विषयों से विवेकपूर्वक उन्‍हें हटाकर उपरत होना ही श्रोत्र आदि इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। इसका सुस्‍पष्‍टभाव गीता के दूसरे अध्‍याय के अठावनवें श्‍लोक में कछुए के दृष्‍टांत से बतलाया गया है।
  15. कानों के द्वारा निंदा और स्‍तुति को या अन्‍य किसी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल शब्‍दों को सुनते हुए, नेत्रों के द्वारा अच्छे-बुरे दृष्‍यों को देखते हुए, जिह्वा के द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल रस को ग्रहण करते हुए- इसी प्रकार अन्‍य समस्‍त इन्द्रियों द्वारा भी प्रारब्‍ध के अनुसार योग्‍यता से प्राप्‍त समस्‍त विषयों का अनासक्‍तभाव से सेवन करते हुए अंतकरण में समभाव रखना, भेदबुद्धिजनित राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकारों का न होने देना-अर्थात् उन विषयों में जो मन और इन्द्रियों को विक्षिप्‍त (विचलित) करने की शक्ति है, उसका नाश करके उनको इन्द्रियों में विलिन करते रहना-यही शब्‍दादि विषयों का इन्द्रियरूप अग्निरूप में हवन करना है।
  16. इस प्रकार के ध्यानयोग में जो मनोनिग्रहपूर्वक इन्द्रियों की देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, आस्वादन करना एवं ग्रहण करना, त्याग करना, बोलना और चलना फिरना आदि तथा प्राणों की श्वास प्रश्वास और हिलना डुलना आदि समस्त क्रियाओं को विलीन करके समाधिस्थ हो जाना है यही आत्म-संयम योगरूप् अग्नि में इन्द्रियों की और प्राणों की समस्त क्रियाओं का हवन करना है।
  17. अपने-अपने वर्णधर्म के अनुसार न्‍याय से प्राप्‍त द्रव्‍य को ममता, आसक्ति और फलेच्‍छा का त्‍याग करके यथायोग्‍य लोकसेवा में लगाना अर्थात् उपर्युक्‍त भाव से बावली, कुएं, तालाब, मंदिर, धर्मशाला आदि बनवाना; भूखे, अनाथ, रोगी, दुखी, असमर्थ, भिक्षु आदि मनुष्‍यों की यथावश्‍यक अन्‍न, वस्‍त्र, जल, औषध, पुस्‍तक आदि वस्‍तुओं द्वारा सेवा करना; विद्वान् तपस्वी वेदपाठी सदाचारी ब्राह्मणों को गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थों का यथायोग्य अपनी शक्ति के अनुसार दान करना- इसी तरह अन्य सब प्राणियों को सुख पहुँचाने के उद्देश्‍य से यथाशक्ति द्रव्य का व्यय करना ‘द्रव्ययज्ञ’ हैं।
  18. परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से अन्त:करण और इन्द्रियों को पवित्र करने के लिये ममता, आसक्ति ओर फलेच्छा के त्यागपूर्वक व्रत-उपवासादि करना; धर्मपालन के लिये कष्‍ट सहना करना; मौन धारण करना; अग्नि और सूर्य के तेज को तथा वायु को सहन करना; एक वस्त्र या दो वस्त्रों से अधिक का त्याग कर देना; अन्न का त्याग कर देना, केवल फल या दूध खाकर ही शरीर का निर्वाह करना; वनवास करना आदि जो शास्त्रविधि के अनुसार तितिक्षा सम्बन्धी क्रियाएं हैं- उन सबका वाचक यहाँ ‘तपोयज्ञ’ है।
  19. यहाँ योगरूप यज्ञ से यह भाव समझना चाहिये कि बहुत-से साधक परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्‍य से आसक्ति, फलेच्छा और ममता का त्याग करके अष्‍टाङ्गयोगरूप यज्ञ का ही अनुष्‍ठान किया करते हैं। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार किंचिन्मात्र कभी कष्‍ट न देना (अहिंसा); हित की भावना से कपटरहित प्रिय शब्दों में यथार्थभाषण (सत्य); किसी प्रकार से भी किसी के स्वत्व- हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा सर्वदा सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाह के अतिरिक्त भोग्य सामग्री का कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह)- इन पांचों का नाम ‘यम’ है। सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता रखना (शौच); प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्‍ट रहना (संतोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्‍ययन तथा ईश्‍वर के नाम और गुणों का कीर्तन करना (स्वाध्‍याय); सर्वस्व ईश्‍वर के अर्पण करके उनकी आज्ञा का पालन करना (ईश्‍वरप्रणिधान)- इन पांचों का नाम ‘नियम’ है। सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम ‘आसन’ हैं। आसन अनेकों प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिये सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन- ये तीन बहुत उपयोगी माने गये है। इनमें से कोई-सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्‍ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्‍य रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी के मध्‍यभाग में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखें मूंदकर भी बैठ सकते है। जो पुरुष जिस आसन से सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, उसके लिये वही आसन उत्तम है।
    बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास हैं; इन दोनों को रोकने का नाम ‘प्राणायाम’ है।
    देश, काल और संख्‍या (मात्रा) के सम्बन्ध से बाह्य, आभ्‍यन्तर और स्तम्भवृत्ति वाले- ये तीनों प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्‍म होते हैं।
    शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जो इन्द्रियों के बाहरी विषय हैं और संकल्प विकल्पादि जो अन्त:करण के विषय हैं, उनके त्याग से- उनकी उपेक्षा करने पर अर्थात् विषयों का चिन्तन न करने पर प्राणों की गति का जो स्वत: ही अवरोध होता है, उसका नाम चतुर्थ ‘प्रणायाम’ हैं।
    अपने-अपने विषयों के संयोग से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के से रूप में अवस्थित हो जाना ‘प्रत्याहार’ है। जाना ‘प्रत्याहार’ है।
    स्थूल-सूक्ष्‍म या बाह्य आभ्‍यन्तर- किसी एक ध्‍येय स्थान में चित्त को बांध देना, स्थिर कर देना या लगा देना ‘धारणा’ कहलाता है।
    चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भाँति या तैलधारावत् अविच्छिन्नरूप से ध्‍येय वस्तु में ही लगा रहना ‘ध्‍यान’ कहलाता है।
    ध्‍यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्‍येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्‍येय में तन्मय सा बन जाता है, ध्‍येय से भिन्न अपने-आपको भी ज्ञान उसे नहीं सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम ‘समाधि’ है।
  20. जिन शास्त्रों में भगवान् के तत्त्व का, उनके गुण, प्रभाव और चरित्रों का तथा उनके साकार-निराकार, सगुण‍-निर्गुण स्वरूप का वर्णन है- ऐसे शास्त्रों का अध्‍ययन करना, भगवान् की स्तुति का पाठ करना, उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना तथा वेद और वेदांगों का अध्‍ययन करना ‘स्वाध्‍याय’ हैं। ऐसा स्वाध्‍याय अर्थज्ञान के सहित होने से तथा ममता, आसक्ति और फलेच्छा के अभावपूर्वक किये जाने से ‘स्वाध्‍यायज्ञानयज्ञ’ कहलाता है। इस पद में स्वाध्‍याय के साथ ‘ज्ञान’ शब्द का समास करके यह भाव दिखलाया है कि स्वाध्‍यायरूप कर्म भी ज्ञानयज्ञ ही है, इसलिये गीता के अध्‍ययन को भी भगवान् ने ‘ज्ञानयज्ञ’ नाम दिया है (गीता 18।70)।
  21. उपर्युक्त प्राणायामरूप यज्ञ में अग्निस्थानीय अपानवायु है और हवि:स्थानीय प्राणवायु है। अतएव यह समझना चाहिये कि जिसे पूरक प्राणायाम कहते हैं, वहीं यहाँ अपानवायु में प्राणवायु का हवन करना है; क्योंकि जब साधक पूरक प्राणायाम करता है तो बाहर की वायु को नासिका द्वारा शरीर में ले जाता है, तब वह बाहर की वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि में से होती हुई अपान में विलीन हो जाती हैं। इस साधन में बार-बार बाहर की वायु को भीतर ले जाकर वहीं रोका जाता है, इसलिये इसे आभ्‍यन्तर कुम्भक भी कहते हैं।
  22. इस दूसरे प्राणायामरूप यज्ञ में अग्निस्थानीय प्राणवायु है और हवि:स्थानीय अपानवायु है। अत: समझना चाहिये कि जिसे रेचक प्राणायाम कहते हैं, वहीं यहाँ पर प्राणवायु में अपानवायु का हवन करना है; क्योंकि जब साधक रेचक प्राणायाम करता है तो वह भीतर की वायु को नासिका द्वारा शरीर से बाहर निकालकर रोकता है; उस समय पहले हृदय में स्थित प्राणवायु बाहर आकर स्थित हो जाती है, पीछे से अपानवायु आकर उसमें विलीन होती है। इस साधन में बार-बार भीतर की वायु को बाहर निकालकर वहीं रोका जाता है, इस कारण से इसे बाह्य कुम्भक भी कहते हैं।
  23. जिस प्राणायाम में प्राण और अपान- इन दोनों की गति रोक दी जाती हैं अर्थात् न तो पूरक प्राणायाम किया जाता है और न रेचक, किंतु श्वास ओर प्रश्वास को बंद करके प्राण-अपान आदि समस्त वायुभेदों को अपने-अपने स्थानों में ही रोक दिया जाता हैं- वहीं यहाँ प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों का प्राणों में हवन करता हैं। इस साधन में न तो बाहर की वायु को भीतर ले जाकर रोका जाता है ओर न भीतर की वायु को बाहर लाकर; बल्कि अपने-अपने स्थानों में स्थित पञ्चवायु भेदों को वहीं रोक दिया जाता है। इसलिये इसे ‘केवल कुम्भक’ कहते हैं।
  24. इस अध्‍याय में चौबीसवें श्‍लोक से लेकर यहाँ तक जिन यज्ञ करने वाले साधक पुरुषों का वर्णन हुआ है, वे सभी ममता, आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर उपर्युक्त यज्ञरूप साधनों का अनुष्‍ठान करके उनके द्वारा पूर्वसचित कर्मसंस्काररूप समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश कर देने वाले हैं; इसलिये वे यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले हैं।

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