सप्तत्यधिकद्विशततम (270) अध्याय: वन पर्व (द्रौपदीहरण पर्व )
महाभारत: वन पर्व: सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्दर उस वन में भीमसेन और अर्जुन को देखकर अमर्ष में भरे हुए क्षत्रियों का अत्यन्त घोर कोलाहल सुनायी देने लगा। उन नरश्रेष्ठ वीरों की ध्वजाओं के अग्रभागों को देखकर हतोत्साह हुए दुरात्मा राजा जयद्रथ ने अपने रथ पर बैठी हुई तेजस्विनी द्रौपदी से स्वयं कहा- ‘सुन्दर केशों वाली कृष्णे! ये पाँच विशाल रथ आ रहे हैं। जान पड़ता है, इनमें तुम्हारे पति ही बैठे हैं। तुम तो सब को जानती ही हो। मुझे रथ पर बैठे हुए इन पाण्डवों में से एक-एक का उत्तरोत्तर परिचय दो’। द्रौपदी बोली- अरे मूढ़! आयु का नाश करने वाला यह अत्यन्त भयंकर नीच कर्म करके अब तू इन महाधनुर्धर पाण्डव वीरों का परिचय जानकर क्या करेगा? ये मेरे सभी वीर पति जुट गये हैं। इनके साथ जो युद्ध होने वाला है, उसमें तेरे पक्ष का कोई भी मनुष्य जीवित नहीं बचेगा। मैं भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर को सामने देख रही हूँ; अत: अब न मुझे दु:ख है और न तेरा डर ही है। अब तू शीघ्र ही मरना चाहता है, अत: ऐसे समय में तूने मुझसे जो कुछ पूछा है, उसका उत्तर तुझे दे देना उचित है; यही धर्म है। (अत: मैं अपने पतियों का परिचय देती हूँ) जिनकी ध्वजा के सिरे पर बंधे हुए नन्द और उपनन्द नामक दो सुन्दर मृदंग मधुर स्वर में बज रहे हैं, जिनका शरीर जाम्बूनद सुवर्ण के समान विशुद्ध गौरवर्ण का है, जिनकी नासिका ऊंची और नेत्र बड़े-बड़े हैं, जो देखने में दुबले-पतले हैं, कुरुकुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं। ये अपने धर्म और अर्थ के सिद्धान्त को अच्छी तरह जानते हैं; अत: आवश्यकता पड़ने पर लोग इनका सदा अनुसरण करते हैं। ये धर्मात्मा नरवीर अपनी शरण में आये हुए शत्रु को भी प्राणदान दे देते हैं। अरे मूर्ख! यदि तू अपनी भलाई चाहता है, तो हथियार नीचे डाल दे और हाथ जोड़कर शीघ्र इनकी शरण में जा। ये जो शाल (साखू) के वृक्ष की तरह ऊँचे ओर विशाल भुजाओं से सुशोभित वीर पुरुष तुझे रथ में बैठे दिखायी देते हैं, जो क्रोध के मारे भौंहे टेढ़ी करके दांतों से अपने होंठ चबा रहे हैं, ये मेरे दूसरे पति वृकोदर हैं। बड़े बलवान्, सुशिक्षित और शक्तिशाली आजानेय नामक अश्व इन शूरशिरोमणि के रथ को खींचते हैं। इनके सभी कर्म प्राय: ऐसे होते हैं, जिन्हें मानव जगत् नहीं कर सकता। ये अपने भंयकर पराक्रम के कारण इस भूतल पर भीम के नाम से विख्यात हैं। इनके अपराधी कभी जीवित नहीं रह सकते। ये वैर को कभी नहीं भूलते हैं और वैर का बदला लेकर ही रहते हैं। बदला लेने के बाद भी अच्छी तरह शान्त नहीं हो पाते। ये जो तीसरे वीर पुरुष दिखायी दे रहे हैं, वे मेरे पति धनंजय हैं। इन्हें समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ माना गया है। ये धैर्यवान्, यशस्वी, जितेन्द्रिय, वृद्ध पुरुषों के सेवक तथा महाराज युधिष्ठिर के भाई और शिष्य हैं। अर्जुन कभी काम, भय अथवा लोभवश न तो अपना धर्म छोड़ सकते हैं और न कोई निष्ठुरतापूर्ण कार्य ही कर सकते हैं। इनका तेज अग्नि के समान है। ये कुन्तीनन्दन धनंजय समस्त शत्रुओं का सामना करने में समर्थ और सभी दुष्टों का दमन करने में दक्ष हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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