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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 10-18 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 10-18 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
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− | + | उसने दो घड़ी तक ध्यान करके नेत्रों में आंसू भरकर, उद्विग्न हृदय से कांपते हुए अचेत की सी दशा में हाथ जोड़कर कहा- ‘मैं इन्हें क्यों नहीं पहचानूंगा। इन्होंने एक हजार बार अग्निस्थापन के समय यज्ञ-यूपों की स्थापना की है। इनके द्वारा दक्षिणा में दी गई गौओं के जाने-आने से यह सरोवर बन गया है, जिसमें मैं निवास करता हूं’। कच्छप के मुँह से ये सारी बातें सुन लेने के पश्चात् देवलोक से एक दिव्य रथ आकर प्रकट हुआ और उसमें से इन्द्रद्युम्न के प्रति कही हुई कुछ बातें सुनायी देने लगीं- ‘राजन्! आपके लिये स्वर्गलोक प्रस्तुत है। वहाँ चलकर यथोचित स्थान ग्रहण करें। आप कीर्तिमान् हैं। अत: निश्चिन्त होकर स्वर्गलोक की यात्रा करें’। | |
− | + | इस विषय में ये श्लोक हैं- ‘जब तक मनुष्य के पुण्यकर्म का शब्द भूलोक और देवलोक का स्पर्श करता है, जब तक दोनों लोकों में उसकी कीर्ति बनी रहती है, तभी तक वह पुरुष स्वर्गलोक का निवासी बताया जाता है। संसार में जिस किसी प्राणी की अपकीर्ति कही जाती है-जब तक उसके अपयश का शब्द गूंजता रहता है, तब तक के लिये वह नीचे के लोकों में गिर जाता है। इसलिये मनुष्य को सदा कल्याणकारी सत्कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। इससे अनन्त फल की प्राप्ति होती है। पापपूर्ण चित्त (चिन्तन या विचार) का परित्याग करके सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये’। | |
− | + | देवदूत की यह बात सुनकर राजा ने कहा- ‘जब तक इन दोनों वृद्धों को इनके स्थान पर पहुँचा न दूं, तब तक ठहरे रहो’। यह कहकर राजा ने मुझे तथा प्रावारकर्ण नामक [[उलूक]] को यथोचित स्थान पर पहुँचा दिया और उसी रथ से स्वर्ग की ओर प्रस्थान करके वहाँ यथोचित स्थान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार मैंने चिरजीवी होकर अनुभव किया है’-यह बात पाण्डवों से मार्कण्डेय जी ने कही। | |
+ | [[पाण्डव]] बोले- 'आपने यह बहुत अच्छा किया कि स्वर्गलोक से भ्रष्ट हुए राजा इन्द्रद्युम्न को पुन: अपने स्थान की प्राप्ति करवा दी।' तब इनसे मार्कण्डेय जी ने कहा- ‘देवकीनन्दन [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] ने भी नरक में डूबते हुए राजर्षि नृग को उस भारी संकट से छुड़ाकर फिर स्वर्ग में पहुँचा दिया।' | ||
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+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में इन्द्रद्युम्नोपाख्यान विषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 1-13]] | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 1-13]] |
12:54, 27 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
महाभारत: वन पर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 10-18 का हिन्दी अनुवाद
इस विषय में ये श्लोक हैं- ‘जब तक मनुष्य के पुण्यकर्म का शब्द भूलोक और देवलोक का स्पर्श करता है, जब तक दोनों लोकों में उसकी कीर्ति बनी रहती है, तभी तक वह पुरुष स्वर्गलोक का निवासी बताया जाता है। संसार में जिस किसी प्राणी की अपकीर्ति कही जाती है-जब तक उसके अपयश का शब्द गूंजता रहता है, तब तक के लिये वह नीचे के लोकों में गिर जाता है। इसलिये मनुष्य को सदा कल्याणकारी सत्कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। इससे अनन्त फल की प्राप्ति होती है। पापपूर्ण चित्त (चिन्तन या विचार) का परित्याग करके सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये’। देवदूत की यह बात सुनकर राजा ने कहा- ‘जब तक इन दोनों वृद्धों को इनके स्थान पर पहुँचा न दूं, तब तक ठहरे रहो’। यह कहकर राजा ने मुझे तथा प्रावारकर्ण नामक उलूक को यथोचित स्थान पर पहुँचा दिया और उसी रथ से स्वर्ग की ओर प्रस्थान करके वहाँ यथोचित स्थान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार मैंने चिरजीवी होकर अनुभव किया है’-यह बात पाण्डवों से मार्कण्डेय जी ने कही। पाण्डव बोले- 'आपने यह बहुत अच्छा किया कि स्वर्गलोक से भ्रष्ट हुए राजा इन्द्रद्युम्न को पुन: अपने स्थान की प्राप्ति करवा दी।' तब इनसे मार्कण्डेय जी ने कहा- ‘देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने भी नरक में डूबते हुए राजर्षि नृग को उस भारी संकट से छुड़ाकर फिर स्वर्ग में पहुँचा दिया।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में इन्द्रद्युम्नोपाख्यान विषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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